इस ब्लॉग के माध्यम से जम्मू और कश्मीर के प्राचीन और गौरवशाली इतिहास, मध्यकालीन इतिहास और वर्तमान समय तक के हिस्सों का पता लगाया जाएगा। तो कश्मीर के प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास के साथ-साथ आजादी से लेकर अब तक की यात्रा के बारे में जानने के लिए हमारे ब्लॉग के साथ बने रहें।
“जब भी हम भारत के नक्शे को देखते है, तब जम्मू-कश्मीर उसमें एक ताज की भांति प्रतीत होता हैं। पर यह ताज हमेशा से पाकिस्तानी आतंकियों के निशाने पर रहा हैं। आजादी की शुरुआत से ही भारत का यह क्षेत्र दहशतगर्दी का शिकार रहा हैं। जम्मू-कश्मीर को आतंक की आग में झोकने का काम वहां के कुछ प्रसिद्ध राजनीतिक घरानों व अलगाववादियों ने किया हैं। जिनकी फंड़िग पाकिस्तान से होती हैं।
वह कश्मीर के आम लोगों को भी इस साजिश में शमिल करते हैं। कश्मीर जिसे ऋषि कश्यप ने बसाया था। जहां पंचतंत्र की रचना ईसा से 200 साल पहले की गयीं। जो कश्मीरी पड़ितों का प्रदेश था। कैसें वो कश्मीर इस्लामिक कट्टरपथियों की पनाहगाह बन गया।”
इस ब्लांग के माध्यम से हम कश्मीर के प्राचीन इतिहास, उसके मध्यकालीन इतिहास व आजादी से अबतक के हिस्सों को जानने का प्रयास करेंगे। तो बने रहे हमारे ब्लांग के साथ..
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जम्मू-कश्मीर का प्राचीन गौरवशाली इतिहास-
जम्मू-कश्मीर का इतिहास हजारों साल पुराना है और यह क्षेत्र अपने सांस्कृतिक, धार्मिक, और बौद्धिक महत्व के लिए प्रसिद्ध रहा है। कश्मीर की उत्पत्ति से जुड़े कई पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भ हैं, जिनमें महर्षि कश्यप का नाम प्रमुखता से आता है। महर्षि कश्यप को कश्मीर की सभ्यता के संस्थापक के रूप में जाता जाता है। महर्षि कश्यप ही कश्मीर के पहले राजा भी थे। यह भी कहा जाता है कि महर्षि कश्यप ने जलमग्न भूमि को सुखाकर इस क्षेत्र को मानव निवास के योग्य बनाया, जिससे यहां सभ्यता का उदय हुआ। यहां सर्वप्रथम कश्यप समाज ही निवास करता था।
- ऋषि कश्यप और कश्मीर की उत्पत्ति-
हमारे पुराणों के अनुसार, कश्मीर कभी एक विशाल झील थी, जिसे ‘सतीसर’ कहा जाता था। महर्षि कश्यप ने अपनी तपस्या और ज्ञान के बल पर इस झील के जल को सुखाया और इसे बाढ़ और राक्षसी शक्तियों से मुक्त कराकर यहां मानव बस्ती की नींव रखी। इस भूमि को पहले कश्यपमार के नाम से जाना जाता था। इस प्रकार, कश्मीर को ऋषि कश्यप से जोड़ते हुए इसे धार्मिक और पौराणिक रूप से महत्वपूर्ण स्थान माना गया। इस कथा के कारण कश्मीर को शैव और वैदिक परंपराओं में एक विशेष स्थान प्राप्त हुआ।
- प्राचीन साम्राज्य और सांस्कृतिक धरोहर-
प्राचीन काल में कश्मीर मौर्य, कुषाण और कर्कोट वंश जैसे शक्तिशाली शासकों के अधीन रहा। 8वीं शताब्दी में कर्कोट वंश ने यहां शासन किया और इसे सांस्कृतिक और स्थापत्य रूप से समृद्ध किया। राजा ललितादित्य ने कई सुंदर मंदिरों का निर्माण कराया, जिनमें मार्तंड सूर्य मंदिर एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यह मंदिर भारतीय स्थापत्य कला और धार्मिक जीवन का प्रतीक है। जो अब इस्लामिक आतंक की भेंट चढ़ गया हैं। यहां महाभारत काल के गणपतयार और खीर भवानी मंदिर आज भी भी मौजूद हैं।
- पंचतंत्र की कहानियों का जन्म स्थल-
कश्मीर का बौद्धिक महत्व भी अद्वितीय है। कश्मीर को प्रसिद्ध पंचतंत्र की कहानियों के जन्म स्थान के रूप में भी जाना जाता है। माना जाता है कि पंडित विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र की कहानियों की रचना इसी भूमि पर की थी। ये कहानियाँ न केवल नैतिक शिक्षा देती हैं, बल्कि प्राचीन भारतीय समाज और जीवन के गहरे दर्शन को सरल और रोचक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। पंचतंत्र की कहानियाँ संपूर्ण विश्व में नैतिकता, बुद्धिमानी, और जीवन के मूल्य सिखाने के लिए जानी जाती हैं, और इसका मूल कश्मीर की धरती से जुड़ा हुआ है।
- कश्मीर की ऐतिहासिक और धार्मिक महत्ता-
कश्मीर को हमेशा से ‘धरती का स्वर्ग’ कहा गया है, जो न केवल अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए बल्कि अपनी धार्मिक महत्ता के कारण भी विख्यात रहा है। कश्मीर शैव और बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र रहा है। यहां के कई ऋषियों और संतों ने भारतीय दर्शन को समृद्ध किया। शैव संतों के अलावा, बौद्ध धर्म के प्रसार में भी कश्मीर का महत्वपूर्ण योगदान रहा। सम्राट अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ और यहां से यह धर्म पूरे एशिया में फैल गया।
इस प्रकार, जम्मू-कश्मीर का प्राचीन इतिहास ऋषि कश्यप की कथाओं, पंचतंत्र की कहानियों और सांस्कृतिक धरोहरों के साथ-साथ धार्मिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत समृद्ध रहा है।
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मध्यकालीन कश्मीर: मुस्लिम शासन, सिख शासन और डोगरा साम्राज्य-
मध्यकालीन कश्मीर का इतिहास भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि इसका प्राचीन इतिहास। इस काल में कश्मीर ने राजनीतिक उथल-पुथल और धार्मिक बदलावों के कई दौर देखे। कश्मीर पर कई बाहरी मुस्लिम आक्रमणकारियों ने शासन किया, जिसके बाद सिखों और डोगरा राजवंश का उदय हुआ।
- मुस्लिम आक्रमणकारियो का शासन और इस्लामीकरण-
यह काल 1346 से शुरु हुआ। मध्यकाल में कश्मीर पर मुस्लिम सुल्तानों का शासन शुरू हुआ। 14वीं शताब्दी में शाह मीर ने कश्मीर में सुल्तान वंश की नींव रखी, जिससे इस क्षेत्र में इस्लाम का प्रसार हुआ। सुल्तान सिकंदर जिसे “सिकंदर बुतशिकन” (मूर्तिभंजक) के नाम से जाना जाता है, ने कश्मीर में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण कराया और मंदिरों को नष्ट किया। यहां से कश्मीर के काले युग की शुरुआत हुई। इस काल में कई हिंदू मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया। जो इस काल तक खंडहर में बदल चुके हैं।
- सिख शासन का उदय-
1819 में महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में सिख सेना ने कश्मीर पर विजय प्राप्त की और कश्मीर को सिख साम्राज्य का हिस्सा बनाया। सिख शासन के दौरान कश्मीर ने एक मजबूत प्रशासनिक व्यवस्था का अनुभव किया, लेकिन साथ ही साथ लोगों पर कठोर कराधान और नियंत्रण भी रहा। सिख शासन का कश्मीर में प्रभाव 27 वर्षों तक रहा, और यह सिख साम्राज्य के विस्तार और राजनीतिक स्थिरता का समय था।
- डोगरा साम्राज्य का उदय-
1846 में ‘अमृतसर संधि’ के बाद, कश्मीर पर डोगरा शासक गुलाब सिंह का अधिकार हो गया, जिससे डोगरा साम्राज्य की स्थापना हुई। डोगरा शासन कश्मीर के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। महाराजा गुलाब सिंह और उनके वंशजों ने कश्मीर में आधुनिक प्रशासनिक सुधारों की नींव रखी। उनके शासनकाल में शिक्षा, बुनियादी ढांचे और कृषि के क्षेत्रों में विकास हुआ।
- डोगरा शासन के अंत की ओर-
20वीं शताब्दी में डोगरा शासन कमजोर पड़ने लगा, और यह समय कश्मीर के राजनीतिक जागरण का भी था। डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह के शासनकाल में कश्मीर ने सबसे अधिक उथल-पुथल देखी। 1947 में भारत की आजादी के समय महाराजा हरि सिंह को भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय लेना था, लेकिन कश्मीर की विशेष स्थिति और पाकिस्तान के आक्रमण के चलते कश्मीर का भारत में विलय हुआ।
आज़ादी से पहले जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक स्थिति-
आज़ादी से पहले जम्मू-कश्मीर एक महत्वपूर्ण और जटिल राजनीतिक संरचना का हिस्सा था। यह राज्य भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे बड़ी रियासतों में से एक था, जिसका शासन महाराजा हरि सिंह के हाथों में था। इस समय जम्मू-कश्मीर की राजनीति पर कई आंतरिक और बाहरी ताकतों का प्रभाव था, जिसने राज्य की भविष्य की दिशा को गहराई से प्रभावित किया। ब्रिटिश शासन और क्षेत्रीय विवादों ने यहां की राजनीतिक स्थिति को पेचीदा बना दिया था।
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- महाराजा हरि सिंह का शासन-
1925 में महाराजा हरि सिंह जम्मू-कश्मीर के शासक बने। उनका शासन कठोर और केंद्रीकृत था, लेकिन साथ ही साथ वे एक ऐसे शासक थे, जो राज्य की स्वायत्तता और स्वतंत्रता के समर्थक थे। उनके शासनकाल में जम्मू-कश्मीर ने कई आर्थिक और सामाजिक सुधार देखे। उन्होंने भूमि सुधार और आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा दिया। हालांकि, धार्मिक और राजनीतिक मामलों में उनकी नीतियां विवादास्पद रहीं, खासकर मुसलमानों के साथ उनके संबंधों में तनाव था, जो राज्य की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा थे।
महाराजा हरि सिंह के शासन में जम्मू-कश्मीर के लोग अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए आंदोलन करने लगे। 1930 के दशक में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में ‘कश्मीर आंदोलन’ का उदय हुआ, जिसमें उन्होंने महाराजा के शासन के खिलाफ आवाज उठाई और लोगों के राजनीतिक अधिकारों की मांग की। यह आंदोलन आगे चलकर ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस’ पार्टी में परिवर्तित हुआ, जिसने जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य में बड़ी भूमिका निभाई।
- ब्रिटिश भारत और रियासतों की भूमिका-
आज़ादी से पहले, जम्मू-कश्मीर भारत की अन्य रियासतों की तरह ब्रिटिश भारत का हिस्सा नहीं था। यह एक स्वतंत्र रियासत थी, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन थी। ब्रिटिश सरकार ने जम्मू-कश्मीर को एक “प्रिंसली स्टेट” (रियासत) का दर्जा दिया था, जहां महाराजा को शासन का अधिकार था, लेकिन रक्षा, विदेश नीति और संचार के मामलों में ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण था।
ब्रिटिश शासन के दौरान, जम्मू-कश्मीर की स्थिति पेचीदा बनी रही क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने रियासतों के प्रति अपनी नीतियों को स्पष्ट रूप से लागू नहीं किया। ब्रिटिश सरकार ने हमेशा कश्मीर पर एक तटस्थ दृष्टिकोण रखा, लेकिन इस क्षेत्र की सामरिक स्थिति के कारण इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। जम्मू-कश्मीर का हिमालयी क्षेत्र न केवल भारत बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के लिए महत्वपूर्ण था
- धार्मिक और सामाजिक तकरार-
आज़ादी से पहले जम्मू-कश्मीर की राजनीति का एक महत्वपूर्ण पहलू धार्मिक विभाजन भी था। राज्य में हिंदू शासक थे, लेकिन मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी थी, जो आर्थिक रूप से कमजोर और सामाजिक रूप से उत्पीड़ित थी। महाराजा हरि सिंह और मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी के बीच दूरी बढ़ती गई, जिसने राज्य में असंतोष और राजनीतिक आंदोलन को जन्म दिया।
शेख अब्दुल्ला जैसे नेताओं ने मुस्लिमों के अधिकारों की बात की और महाराजा के खिलाफ जनांदोलन शुरू किया। इसी आंदोलन ने राज्य की राजनीति को नए सिरे से आकार दिया और स्वतंत्रता संग्राम में भी कश्मीर का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
- कश्मीर के भारत और पाकिस्तान में शामिल होने का सवाल-
1947 में जब भारत को आज़ादी मिली, तो जम्मू-कश्मीर के भविष्य को लेकर प्रश्न खड़ा हुआ। भारत-पाकिस्तान के विभाजन के समय, रियासतों को भारत या पाकिस्तान में शामिल होने या स्वतंत्र रहने का विकल्प दिया गया था। लेकिन महाराजा हरि सिंह ने तटस्थ रहने का प्रयास किया, जिससे राज्य की स्थिति और जटिल हो गई।
महाराजा हरि सिंह की यह दुविधा और तत्कालीन राजनीतिक उथल-पुथल ने जम्मू-कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच एक विवादित क्षेत्र बना दिया, जिसकी छाया आज भी इस क्षेत्र की राजनीति पर बनी हुई है।
इस प्रकार, आज़ादी से पहले जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक स्थिति जटिल, धार्मिक और सामाजिक तनावों से भरी थी, जिसमें महाराजा हरि सिंह का शासन, ब्रिटिश भारत की नीतियां और कश्मीर के आंतरिक राजनीतिक आंदोलन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आज़ादी के समय जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण और युद्ध-
भारत की आज़ादी के समय, जम्मू-कश्मीर एक बेहद संवेदनशील और विवादित क्षेत्र बन गया था। यह रियासत, जो भारत और पाकिस्तान के बीच स्थित थी, स्वतंत्रता के समय तक महाराजा हरि सिंह के अधीन थी। विभाजन के समय कश्मीर का भविष्य अनिश्चित था, और इसी दौरान हुए कई महत्वपूर्ण घटनाक्रमों ने भारत-पाकिस्तान के संबंधों और इस क्षेत्र की स्थिति को हमेशा के लिए बदल दिया। कश्मीर पर हमले और इसके बाद शुरू हुए युद्ध ने दक्षिण एशिया की राजनीति में गहरा असर डाला।
- पाकिस्तान का कबायली हमला (ऑपरेशन गुलमर्ग)-
1947 में भारत और पाकिस्तान को स्वतंत्रता मिलने के साथ ही रियासतों को यह विकल्प दिया गया कि वे भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकती हैं या स्वतंत्र रह सकती हैं। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने शुरू में किसी भी देश में शामिल न होकर स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया।
लेकिन, इस बीच पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्ज़ा करने की योजना बनाई। अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कबायली लड़ाकों और नियमित सैनिकों की मदद से जम्मू-कश्मीर पर हमला किया। इस आक्रमण को ‘ऑपरेशन गुलमर्ग’ के नाम से जाना जाता है। हजारों कबायली हमलावरों ने कश्मीर के कई हिस्सों पर धावा बोला, लूटपाट और हत्या का सिलसिला शुरू कर दिया। यह हमला पूरी तरह से कश्मीर पर कब्जा करने के उद्देश्य से किया गया था।
कबायली आक्रमणकारियों ने कश्मीर के बारामूला और अन्य क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर हिंसा की, जिसमें महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, मंदिरों और धार्मिक स्थलों को नष्ट करना और हिंदू तथा सिख समुदायों का नरसंहार शामिल था। यह आक्रमण महाराजा हरि सिंह के शासन और कश्मीर की स्थिरता के लिए गंभीर खतरा था।
- भारत का हस्तक्षेप और महाराजा का भारत में विलय-
पाकिस्तानी आक्रमण के बाद, महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद की गुहार लगाई। हालांकि, भारत ने स्पष्ट किया कि वह तभी सैन्य सहायता प्रदान करेगा, जब जम्मू-कश्मीर औपचारिक रूप से भारत में विलय हो जाएगा। इस स्थिति में, महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को ‘विलय पत्र’ (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया।
इस विलय के बाद, भारतीय सेना ने पाकिस्तान के कबायली हमलावरों को पीछे धकेलने के लिए कश्मीर में प्रवेश किया। भारतीय सैनिकों ने तेजी से कश्मीर के कई हिस्सों को पाकिस्तानी कब्जे से मुक्त करवाया, और इस तरह कश्मीर में भारतीय सैन्य हस्तक्षेप शुरू हुआ।
- भारत और पाकिस्तान के बीच पहला युद्ध (1947-48)-
महाराजा हरि सिंह के भारत में विलय के बाद भी, पाकिस्तान ने कश्मीर पर दावा करना जारी रखा और दोनों देशों के बीच कश्मीर को लेकर पहला युद्ध शुरू हो गया। यह युद्ध 1947 के अंत से लेकर 1948 तक चला। भारतीय सेना ने आक्रमणकारियों को रोकने और कश्मीर की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बड़े पैमाने पर ऑपरेशंस चलाए।
हालांकि, युद्ध की स्थिति जटिल बनी रही, क्योंकि पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर के उत्तरी हिस्सों पर कब्जा जमा लिया, जिसे आज ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ कहा जाता है।
- संयुक्त राष्ट्र का हस्तक्षेप और युद्धविराम-
1948 में, भारत ने कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र (UN) में उठाया। संयुक्त राष्ट्र ने हस्तक्षेप करते हुए दोनों देशों को युद्धविराम का प्रस्ताव दिया। जो कि उस वक्त भारत का सबसे बड़ा बलड़र था। जो कि भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु द्वारा किया गया था। 1 जनवरी 1949 को, युद्धविराम लागू हुआ और भारतीय और पाकिस्तानी सेना अपनी-अपनी जगहों पर रुक गईं। युद्धविराम के समय तक पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के लगभग एक तिहाई हिस्से पर कब्जा कर चुका था, जबकि बाकी का क्षेत्र भारत के नियंत्रण में रहा।
संयुक्त राष्ट्र ने जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन इसके लिए शर्त यह थी कि पहले पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले इलाकों से अपनी सेना हटानी होगी। पाकिस्तान ने इस शर्त को कभी नहीं माना, और इस कारण जनमत संग्रह कभी नहीं हो पाया।
- कश्मीर का विभाजन और स्थायी विवाद-
इस युद्ध और उसके बाद हुए संघर्षों के कारण कश्मीर स्थायी रूप से दो भागों में विभाजित हो गया—एक हिस्सा भारत के नियंत्रण में और दूसरा पाकिस्तान के कब्जे में। इस संघर्ष ने कश्मीर मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय विवाद का रूप दे दिया, जो आज तक दोनों देशों के बीच सबसे बड़ा और गंभीर मुद्दा बना हुआ है।
इस प्रकार, 1947-48 का यह युद्ध और पाकिस्तान का आक्रमण जम्मू-कश्मीर के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। यह न केवल कश्मीर की राजनीतिक स्थिति को स्थायी रूप से प्रभावित कर गया, बल्कि भारत और पाकिस्तान के संबंधों में भी गहरी खाई पैदा कर दी, जो आज भी दोनों देशों के बीच तनाव का प्रमुख कारण है। पाकिस्तान ने उस वक्त से अबतक कश्मीर में कई आतंकी गतिविधियों का अंजाम दिया हैं।
कश्मीर के इस भाग में हम अभी सिर्फ एक हिस्से को कवर कर रहे हैं। इसके आगे के हिस्से को अब अगले अंक में प्रस्तुत करेंगे। धन्यवाद…