ईरान की पहचान का सफर: साम्राज्य से इस्लामिक क्रांति तक की ऐतिहासिक यात्रा और उसका वैश्विक राजनीति पर प्रभाव Part-2

“ईरान भाग-1 के पहले हिस्से में हमने ईरान के प्राचीन इतिहास से लेकर उसके इस्लामिक क्रांति तक के सफर को जाना। इस भाग में हम उसके इस्लामिक क्रांति के बाद के सफर का आगाज करेंगे। इस भाग में हम इस क्रांति के बाद आये ईरान के सोसाइटी में बदलाव, यूएस व इजराइल के प्रति वहां की इस्लामिक सरकार का रुख व इस्लामिक दुनिया में उसके कद का विश्लेषण करेंगे।”

“इस क्रांति के बाद ईरान में व्यापक बदलाव हुए, उस सत्ता को उखाड़ फेंका गया जो कि यूएस व पश्चिमी देशों के फायदें की थीं। और ईरान में एक अतिकट्टर इस्लामिक शासन का उदय हुआ। जिसकी कमान वहां के सुप्रीम लीड़र बने अयातुल्ला खुमैनी के हाथों में थीं। वहां की सोसाइटी में कई बदलाव आयें। महिलाओं की आजादी पूरी तरह खत्म कर दी गयीं, पूरे देश में शरिया कानून लागू कर दिया गया। पूरे देश में अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग समाप्त ही कर दी गई।

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ईरान, इजराइल व यूएस को सबसे बड़ा दुश्मन मानने लगा। उसने इजराइल के खिलाफ कई छद्म युद्धों को सह देना शुरु कर दिया। इजराइल व ईरान एक कट्टर दुश्मन के रुप में उभरें। उसने फिलिस्तीन को मदद करने व इजराइल को मान्यता न देना का निश्चय किया। इसके लिए उसने हमास, हिजबुल्लाह व हूती जैसे आतंकवादी संगठनों को फंड करना शुरु किया। और यह जंग आज भी जारी हैं।”

इस ब्लांग में हम ईरान की सोसाइटी में आये बदलाव, उसकी इजराइल व यूएस के साथ दुश्मनी व कई अन्य मुद्दों पर प्रकाश डालेंगे। तो बने रहे हमारे ब्लांग के साथ…

1979 की इस्लामिक क्रांति ने न केवल ईरान की राजनीतिक व्यवस्था को पूरी तरह बदल दिया, बल्कि इसके सामाजिक ढांचे पर भी गहरा प्रभाव डाला। इस्लामी गणराज्य की स्थापना के बाद, समाज के हर पहलू को शरिया (इस्लामी कानून) के अनुसार ढालने की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसने लोगों के जीवन, संस्कृति, और अधिकारों पर व्यापक प्रभाव डाला। इसके बाद हुए बदलाव कुछ इस प्रकार है-

इस्लामिक क्रांति के बाद, ईरान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य से एक धार्मिक राज्य में परिवर्तित हो गया। शरिया कानूनों को लागू किया गया और इस्लामी मूल्यों को समाज का केंद्र बना दिया गया। सार्वजनिक जीवन, कपड़े, और धार्मिक अनुष्ठानों के नियम सख्त हो गए। महिलाओं के लिए हिजाब (सिर पर कपड़ा पहनना) अनिवार्य कर दिया गया और इस्लामी नियमों के तहत सामाजिक आचरण निर्धारित किए गए।

इस्लामी क्रांति ने पारंपरिक इस्लामी संस्कृति और धर्म को फिर से जीवंत किया, लेकिन इसके साथ ही पश्चिमी प्रभावों को पूरी तरह समाप्त करने का प्रयास किया गया। मीडिया, शिक्षा, और मनोरंजन के क्षेत्र में इस्लामी मूल्यों का कड़ाई से पालन किया गया। धार्मिक नेताओं और संस्थानों को समाज में एक विशेष स्थान मिला, जिससे धार्मिक अधिकारों और शक्तियों का विस्तार हुआ।

इस्लामी क्रांति के बाद महिलाओं की स्थिति में बड़ा बदलाव आया। जहाँ एक तरफ पहलवी शासन के दौरान महिलाओं को आधुनिक शिक्षा, रोजगार और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी के अधिक अवसर दिए गए थे, वहीं क्रांति के बाद महिलाओं के अधिकारों में कटौती की गई। हिजाब पहनना अनिवार्य कर दिया गया और महिलाओं के सामाजिक स्वतंत्रता पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगाए गए।

इस्लामिक - ईरान की पहचान का सफर: साम्राज्य से इस्लामिक क्रांति तक की ऐतिहासिक यात्रा और उसका वैश्विक राजनीति पर प्रभाव
इस्लामिक – ईरान की पहचान का सफर: साम्राज्य से इस्लामिक क्रांति तक की ऐतिहासिक यात्रा और उसका वैश्विक राजनीति पर प्रभाव
  •  राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता में कमी-

इस्लामी क्रांति के बाद राजनीतिक स्वतंत्रता पर भारी प्रतिबंध लगाए गए। क्रांति के बाद नई सरकार ने शाह समर्थक और पश्चिमी विचारधारा वाले लोगों को दबाने के लिए कठोर कदम उठाए। राजनीतिक विरोधियों, धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों और अल्पसंख्यकों पर सख्त नजर रखी गई, जिससे सामाजिक और राजनीतिक स्वतंत्रता में कमी आई।

सरकार ने सख्त सेंसरशिप लागू की और राजनीतिक पार्टियों और मीडिया पर नियंत्रण बढ़ा दिया। लोकतंत्र की अवधारणा पर धार्मिक शासन का बोलबाला रहा, जहां सर्वोच्च नेता को अंतिम निर्णय लेने का अधिकार मिला।

  •  शिक्षा और युवाओं पर प्रभाव-

शिक्षा प्रणाली में भी व्यापक बदलाव किए गए। इस्लामी सिद्धांतों को शिक्षा का मुख्य आधार बना दिया गया, और पश्चिमी प्रभावों को पाठ्यक्रमों से हटाने का प्रयास किया गया। धार्मिक शिक्षाओं को प्राथमिकता दी गई और युवाओं को इस्लामी मूल्यों के प्रति जागरूक बनाने के लिए शिक्षा नीति को ढाला गया।

  •  आर्थिक असमानताएँ और समाज की चुनौतियाँ-

इस्लामी क्रांति के बाद आर्थिक नीति में भी परिवर्तन हुए। पश्चिमी देशों के साथ व्यापार और आर्थिक सहयोग में गिरावट आई, जिससे ईरान की आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई। इससे समाज में गरीब और अमीर के बीच असमानता बढ़ी। बेरोजगारी, महंगाई, और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों ने ईरानी जनता की आर्थिक स्थिति को चुनौतीपूर्ण बना दिया।

ईरान और इजराइल के बीच दुश्मनी एक जटिल और ऐतिहासिक संघर्ष है, जो क्षेत्रीय राजनीति, धार्मिक विचारधाराओं, और वैश्विक शक्तियों के प्रभाव से प्रेरित है। एक समय ऐसा था जब दोनों देशों के बीच संबंध काफी बेहतर थे, लेकिन 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद से यह रिश्ते अत्यधिक शत्रुतापूर्ण हो गए। इसके कुछ अहम बिन्दु निम्नलिखित हैं-

  1.  इस्लामिक क्रांति से पहले: सहयोगी संबंधों की शुरुआत-

इस्लामिक क्रांति से पहले ईरान और इजराइल के बीच दोस्ताना संबंध थे। पहलवी शासन के दौरान, ईरान और इजराइल ने विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग किया, जिनमें व्यापार, खुफिया जानकारी का आदान-प्रदान और सैन्य सहायता शामिल थी। पहलवी शाह ने इजराइल को एक साथी के रूप में देखा, विशेष रूप से अरब देशों के प्रति दोनों के साझा विरोध के कारण। 1948 में इजराइल की स्थापना के समय, इजराइल को मान्यता देने वाले मुस्लिम देशों में ईरान पहले स्थान पर था।

इस्लामिक क्रांति के पहले, दोनों देशों के बीच मजबूत संबंध थे, लेकिन 1979 में खुमैनी के सत्ता में आने के बाद सब कुछ बदल गया। अयातुल्ला खुमैनी ने इजराइल को एक “शैतानी राज्य” के रूप में देखा और उसे “इस्लाम का दुश्मन” करार दिया। इस्लामिक गणराज्य ने इजराइल के खिलाफ एक कड़ा रुख अपनाया, और दोनों देशों के बीच मित्रवत संबंध समाप्त हो गए।

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  •  इस्लामिक क्रांति के बाद दुश्मनी का उदय-

1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद ईरान का राजनीतिक दृष्टिकोण पूरी तरह बदल गया। ईरान ने खुद को इस्लामी क्रांति का प्रमुख वाहक माना और इसे पूरे मध्य पूर्व में फैलाने का प्रयास किया। इस संदर्भ में, इजराइल को “इस्लाम का दुश्मन” और फिलिस्तीनी मुद्दे का सबसे बड़ा बाधक माना गया। इजराइल के प्रति ईरान की नीति का मुख्य आधार फिलिस्तीन की स्वतंत्रता और इजराइल के साथ किसी भी प्रकार के सहयोग या संबंध को अस्वीकार करना था।

खुमैनी की विचारधारा के तहत, ईरान ने इजराइल के खिलाफ आतंकवादी समूहों जैसे हिज़बुल्लाह और हमास का समर्थन करना शुरू किया। हिज़बुल्लाह को विशेष रूप से ईरान द्वारा प्रशिक्षित और वित्तीय सहायता दी गई, ताकि इजराइल के खिलाफ संघर्ष जारी रखा जा सके। यह समूह लेबनान में सक्रिय है और इजराइल के साथ कई संघर्षों में शामिल रहा है।

  •  क्षेत्रीय राजनीति और शक्ति संघर्ष-

ईरान और इजराइल के बीच दुश्मनी केवल विचारधाराओं तक सीमित नहीं है, यह क्षेत्रीय शक्ति संतुलन से भी गहराई से जुड़ी हुई है। ईरान ने मध्य पूर्व में अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए कई देशों में अपने प्रभाव का विस्तार किया है, जिसमें इराक, सीरिया, और यमन शामिल हैं। इजराइल को यह ईरानी विस्तारवादी नीति एक सीधा खतरा मानती है, विशेषकर सीरिया में ईरानी उपस्थिति और हिज़बुल्लाह के माध्यम से इजराइल की सीमाओं पर खतरे के रूप में।

सीरिया में असद शासन का समर्थन करना और इराक में शिया मिलिशिया का सहयोग करना, ईरान की क्षेत्रीय रणनीति का हिस्सा है, ताकि वह इजराइल को घेर सके और मध्य पूर्व में अपनी स्थिति मजबूत कर सके। इजराइल इस बढ़ते ईरानी प्रभाव को रोकने के लिए विभिन्न उपायों का सहारा लेता रहा है, जिनमें सीरिया में हवाई हमले और हिज़बुल्लाह के खिलाफ सैन्य कार्रवाई शामिल हैं।

  •  ईरान का परमाणु कार्यक्रम: संघर्ष का मुख्य बिंदु-

ईरान और इजराइल के बीच दुश्मनी का सबसे विवादास्पद मुद्दा ईरान का परमाणु कार्यक्रम है। इजराइल का मानना है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम उसके अस्तित्व के लिए खतरा है। इजराइल को डर है कि अगर ईरान परमाणु हथियार विकसित करता है, तो वह इजराइल के खिलाफ इसका इस्तेमाल कर सकता है, विशेष रूप से ईरानी नेताओं द्वारा दिए गए बयान जिन्हें इजराइल की “विनाश” की धमकी के रूप में देखा गया है।

इस डर के कारण, इजराइल ने कई बार ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले की धमकी दी है और 2010 से 2012 के बीच ईरान के परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या के लिए कथित रूप से जिम्मेदार ठहराया गया है। ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी विवाद रहा है, जिसमें अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं।

  •  अतर्राष्ट्रीय संबंध और दबाव-

ईरान और इजराइल के बीच का यह संघर्ष केवल क्षेत्रीय नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी महत्वपूर्ण है। इजराइल अमेरिका का निकट सहयोगी है, जबकि ईरान और अमेरिका के बीच शत्रुतापूर्ण संबंध हैं। यह भू-राजनीतिक संघर्ष और भी जटिल हो जाता है जब रूस और चीन जैसे शक्तिशाली देश ईरान के साथ अपने संबंधों को बढ़ाते हैं, जबकि अमेरिका और यूरोपीय संघ इजराइल का समर्थन करते हैं।

इस्लामिक - ईरान की पहचान का सफर: साम्राज्य से इस्लामिक क्रांति तक की ऐतिहासिक यात्रा और उसका वैश्विक राजनीति पर प्रभाव
इस्लामिक – ईरान की पहचान का सफर: साम्राज्य से इस्लामिक क्रांति तक की ऐतिहासिक यात्रा और उसका वैश्विक राजनीति पर प्रभाव
  •  भविष्य की चुनौतियाँ और संघर्ष का प्रभाव-

ईरान और इजराइल के बीच यह दुश्मनी समय के साथ और भी जटिल होती जा रही है। हिज़बुल्लाह, हमास, और ईरान का परमाणु कार्यक्रम जैसे मुद्दे इस संघर्ष को और भी भड़काते हैं। साथ ही, मध्य पूर्व की जियोपॉलिटिक्स में बदलाव और अमेरिका द्वारा ईरान पर लगाए गए प्रतिबंध इस संघर्ष को और भी गहराई से प्रभावित करते हैं।

  • पहले सहयोगी, फिर कट्टर दुश्मन-

इस्लामिक क्रांति से पहले, ईरान और अमेरिका के बीच बहुत अच्छे संबंध थे। पहलवी शाह के शासन के दौरान, ईरान अमेरिका का महत्वपूर्ण सहयोगी था, खासकर मध्य पूर्व में। दोनों देशों ने व्यापार, सैन्य और राजनीतिक क्षेत्रों में गहरे संबंध बनाए रखे थे। लेकिन 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद, जब अयातुल्ला खुमैनी ने सत्ता संभाली, तो ईरान ने अमेरिका को “महान शैतान” के रूप में देखना शुरू किया। अमेरिकी दूतावास पर कब्जा और 52 अमेरिकी नागरिकों का बंधक बनाना, इन संबंधों में निर्णायक मोड़ साबित हुआ। इस घटना ने दोनों देशों के बीच दुश्मनी को और गहरा कर दिया।

  • परमाणु कार्यक्रम और प्रतिबंधों से बढ़ती दूरी-

ईरान के परमाणु कार्यक्रम ने इस दुश्मनी को और भी जटिल बना दिया। अमेरिका का मानना था कि ईरान परमाणु हथियार विकसित कर रहा है, जो न केवल क्षेत्रीय शांति, बल्कि वैश्विक सुरक्षा के लिए भी खतरा है। इसके चलते, अमेरिका ने ईरान पर कई कठोर आर्थिक प्रतिबंध लगाए। ये प्रतिबंध ईरान की अर्थव्यवस्था पर गंभीर असर डाल रहे हैं, लेकिन ईरान ने फिर भी अपने परमाणु कार्यक्रम पर समझौता करने से इंकार कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, दोनों देशों के बीच कूटनीतिक दूरी और भी बढ़ गई, और यह दुश्मनी अंतरराष्ट्रीय संबंधों का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई है।

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  • परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत और उसकी तकनीकी जड़ें-

ईरान का परमाणु कार्यक्रम 1950 के दशक में शुरू हुआ, जब उसे अमेरिका द्वारा “एटम्स फॉर पीस” पहल के तहत सहायता मिली। इस पहल का उद्देश्य परमाणु ऊर्जा को शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए उपयोग करना था, और ईरान को इससे लाभ हुआ। लेकिन 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद, ईरान ने अपना स्वतंत्र परमाणु कार्यक्रम विकसित करने की दिशा में कदम बढ़ाया। इसके बाद से ईरान के परमाणु प्रयासों को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गंभीर चिंताएँ उभरने लगीं।

ईरान का दावा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह से शांतिपूर्ण है और इसका उद्देश्य ऊर्जा उत्पादन और चिकित्सा अनुसंधान में सहयोग करना है। हालांकि, पश्चिमी देश, खासकर अमेरिका और इजराइल, ईरान की इस बात पर यकीन नहीं करते। उन्हें शक है कि ईरान गुप्त रूप से परमाणु हथियारों का निर्माण कर रहा है। यह संदेह इसलिए भी बढ़ा क्योंकि ईरान ने कई बार अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण टीमों को अपने परमाणु स्थलों पर पूरी पहुंच नहीं दी, जिससे इन आशंकाओं को और बल मिला।

  • जेसीपीओए (JCPOA) समझौता: समाधान की उम्मीद और उसका विघटन-

ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर उपजी चिंताओं के समाधान के लिए 2015 में एक ऐतिहासिक समझौता हुआ, जिसे ज्वाइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (JCPOA) कहा जाता है। इस समझौते में ईरान और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य (अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन) और जर्मनी शामिल थे। इसके तहत ईरान ने अपने यूरेनियम संवर्धन (uranium enrichment) कार्यक्रम को सीमित करने पर सहमति दी। बदले में, ईरान पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों में कुछ हद तक राहत दी गई, जिससे उसकी अर्थव्यवस्था को बड़ी राहत मिली।

हालांकि, 2018 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस समझौते को “सबसे खराब सौदा” करार देते हुए अमेरिका को इससे बाहर निकाल लिया। इसके परिणामस्वरूप, अमेरिका ने ईरान पर फिर से कड़े प्रतिबंध लगाए, जिससे ईरान की अर्थव्यवस्था पर भारी प्रभाव पड़ा। ट्रंप के इस कदम के बाद, ईरान ने भी धीरे-धीरे JCPOA की शर्तों का उल्लंघन करना शुरू कर दिया। इसके तहत, उसने अपनी यूरेनियम संवर्धन की प्रक्रिया को तेज कर दिया, जिससे फिर से पश्चिमी देशों, खासकर इजराइल और अमेरिका में चिंता बढ़ गई।

  • ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ-

ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया कड़ी रही है। अमेरिका और इजराइल ने ईरान के खिलाफ कई बार कड़े कदम उठाने की धमकी दी है। इजराइल को डर है कि अगर ईरान परमाणु हथियार हासिल कर लेता है, तो उसकी सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा। इसी वजह से इजराइल ने कई बार ईरान के परमाणु ठिकानों पर सैन्य हमले की चेतावनी दी है।

दूसरी ओर, रूस और चीन जैसे देश ईरान के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने के पक्षधर हैं। उन्होंने कई बार ईरान के परमाणु कार्यक्रम का समर्थन किया है, विशेष रूप से यह तर्क देते हुए कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है और उसे अपने संसाधनों का उपयोग करने का अधिकार है।

  • भविष्य की दिशा: समाधान या संघर्ष?

ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लगातार तनाव बना हुआ है। जबकि JCPOA समझौते को पुनर्जीवित करने के प्रयास चल रहे हैं, अभी तक इस दिशा में कोई ठोस प्रगति नहीं हुई है। दूसरी ओर, ईरान अपनी परमाणु गतिविधियों को तेज करने में लगा हुआ है, जिससे इजराइल और अमेरिका जैसे देशों की चिंताएँ और बढ़ रही हैं।

यदि कोई कूटनीतिक समाधान नहीं निकला, तो आने वाले समय में यह मुद्दा मध्य पूर्व की स्थिरता के लिए एक बड़ा खतरा बन सकता है। परमाणु कार्यक्रम के साथ-साथ, ईरान की क्षेत्रीय रणनीतियाँ, जैसे कि हिज़बुल्लाह और हमास को समर्थन देना, इस मुद्दे को और भी जटिल बनाते हैं। इसलिए, यह कहना गलत नहीं होगा कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम वैश्विक शक्ति संतुलन के संघर्ष में एक केंद्रीय भूमिका निभा रहा है।

इस्लामिक - ईरान की पहचान का सफर: साम्राज्य से इस्लामिक क्रांति तक की ऐतिहासिक यात्रा और उसका वैश्विक राजनीति पर प्रभाव
इस्लामिक – ईरान की पहचान का सफर: साम्राज्य से इस्लामिक क्रांति तक की ऐतिहासिक यात्रा और उसका वैश्विक राजनीति पर प्रभाव
  • सुप्रीम लीडर का पद: सबसे बड़ी सत्ता

ईरान में सुप्रीम लीडर का पद देश की सबसे शक्तिशाली और निर्णायक स्थिति है। 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद, अयातुल्ला रुहोल्लाह खुमैनी ने इस पद की स्थापना की थी। यह पद ईरान की राजनीतिक और धार्मिक दोनों ही शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ सुप्रीम लीडर की सत्ता राष्ट्रपति और संसद से भी ऊपर है।

सुप्रीम लीडर को ईरान के संविधान के अनुसार, सेना, न्याय व्यवस्था, और धार्मिक संस्थानों पर पूरी शक्ति प्राप्त है। उनका अंतिम निर्णय हर विषय पर सर्वोच्च होता है और उसका पालन अनिवार्य होता है। आज अयातुल्ला अली खामेनेई इस पद पर काबिज हैं और 1989 से इस भूमिका को निभा रहे हैं।

  • धार्मिक और सामाजिक नियंत्रण-

सुप्रीम लीडर का एक मुख्य उद्देश्य ईरान में इस्लामी सिद्धांतों को बनाए रखना और उनका पालन सुनिश्चित करना है। इसके लिए वह शरिया कानून को लागू करता है और समाज के सभी वर्गों से इसकी पालना करवाता है। ईरानी समाज के हर पहलू—चाहे वह राजनीति हो, कानून व्यवस्था हो, या सांस्कृतिक जीवन—में धार्मिक नैतिकता की अनिवार्यता को सुनिश्चित करना सुप्रीम लीडर की जिम्मेदारी होती है।

उदाहरण के तौर पर, महिलाओं के लिए हिजाब पहनना अनिवार्य किया गया है और इस्लामी नैतिकता के खिलाफ कोई भी गतिविधि प्रतिबंधित है। सुप्रीम लीडर यह भी सुनिश्चित करता है कि ईरान में सांस्कृतिक और धार्मिक नियंत्रण बना रहे, और पश्चिमी प्रभाव को कम किया जाए।

  • सुरक्षा और सेना पर पकड़-

ईरान की सुरक्षा और रक्षा पर भी सुप्रीम लीडर की गहरी पकड़ होती है। वह सेना और इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) का सर्वोच्च कमांडर होता है। यह शक्तिशाली सैन्य बल केवल सुप्रीम लीडर को जवाबदेह होता है। इसके जरिए, न केवल बाहरी खतरों से देश की सुरक्षा की जाती है, बल्कि आंतरिक असंतोष और विरोध को भी दबाया जाता है।

IRGC के जरिए, सुप्रीम लीडर ईरानी समाज में इस्लामी क्रांति के मूल्यों की रक्षा और प्रचार करता है। इसके अलावा, राजनीतिक विरोध को दबाने और सामाजिक स्थिरता बनाए रखने के लिए IRGC और सुरक्षा एजेंसियाँ प्रमुख भूमिका निभाती हैं।

7 अक्टूबर 2023 को हमास द्वारा इज़राइल पर किया गया हमला एक ऐसा कृत्य था, जिसने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा और मध्य पूर्व में पहले से ही तनावपूर्ण माहौल को और अधिक गंभीर बना दिया। इस हमले की योजना और क्रियान्वयन दोनों ही अप्रत्याशित थे, और इसके परिणामस्वरूप इज़राइल में बड़ी संख्या में नागरिकों और सैनिकों की जान गई। यह हमला इज़राइल के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरा और वैश्विक स्तर पर सुरक्षा और शांति के मुद्दे को और गंभीर कर दिया।

  1.  हमले की योजना और तरीका-

हमास ने इस हमले को बेहद सुनियोजित ढंग से अंजाम दिया, जिसमें रॉकेट हमले, सीमा पार घुसपैठ, और इज़राइल की सैन्य और नागरिक ठिकानों को निशाना बनाया गया। यह हमला कई वर्षों की योजना और तैयारियों का परिणाम था, जिसमें हमास ने इज़राइल की सुरक्षा प्रणाली में कमजोरियों का फायदा उठाया। इस हमले में हजारो रॉकेट, विस्फोटक, स्पीड बोट व पैराग्लाइडर शमिल थे। हमास के आतंकी इजराइल के कस्बों व शहरों में घुसकर आम लोगों को निशाना बनाया। यह हमला तब किया गया, जब इजराइल किप्पुर युद्ध की 50वीं वर्षगांठ बना रहा था। इस हमले में 1200 से ज्यादा लोगों की जान चली गयीं। जबकि 250 से ज्यादा लोगों को हमास के आतंकियों ने बंधक बना लिया।

हमास के इस हमले ने इज़राइल की सुरक्षा के प्रति एक नई चुनौती पेश की, और देश में सुरक्षा उपायों को और कड़ा कर दिया गया।

  •  इज़राइल की प्रतिक्रिया और अंतर्राष्ट्रीय स्थिति-

हमास के इस हमले के बाद, इज़राइल ने तुरंत जवाबी कार्रवाई की और हमास के ठिकानों पर जोरदार हमले किए। इज़राइल की सैन्य शक्ति और तकनीकी क्षमताओं के बावजूद, यह हमला यह साबित करने में सफल रहा कि हमास अब भी इज़राइल के लिए एक बड़ा खतरा है। इसके अलावा, इस घटना ने दुनिया भर के देशों को मध्य पूर्व के इस संघर्ष पर नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर कर दिया।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने हमास के इस हमले की निंदा की, और इज़राइल की सुरक्षा के प्रति समर्थन व्यक्त किया। कई देशों ने मध्य पूर्व में शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए कूटनीतिक प्रयास तेज कर दिए। हालांकि, इस घटना ने क्षेत्र में अस्थिरता को और बढ़ा दिया, और लंबे समय से चल रहे इज़राइल-हमास संघर्ष को और अधिक पेचीदा बना दिया।

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  1.  ईरान ने हमास के हमले का समर्थन किया और इसे “फिलिस्तीनी प्रतिरोध” का हिस्सा बताया। ईरान ने हमास की इस कार्रवाई को जायज़ ठहराया और इज़राइल के खिलाफ इसे संघर्ष का सही तरीका कहा।
  2.  हमले के तुरंत बाद, इज़राइल ने ईरान पर हमास को वित्तीय और सैन्य सहायता देने का आरोप लगाया। इज़राइल ने ईरान को इस हमले के पीछे का प्रमुख कर्ताधर्ता बताया और धमकी दी कि अगर ईरान सीधे हमले में शामिल पाया गया, तो उसे इसका परिणाम भुगतना होगा।
  3.  इस हमले के बाद इज़राइल ने पूरी गाजा पट्टी को चपटा कर दिया हैं। इस हमले में 40 हजार से ज्यादा लोगों की जान चली गयीं।
  4.  हमास के साथ, इस हमले मे हिज़बुल्लाह भी शामिल हो गया। जिससे इजराइल को दो तरफ से युद्ध करना पड़ रहा हैं।
  5.  इस हमले में ईरान की एक और मिलिशिया यमन में फैंले हूती विद्रोही भी इसमें शामिल हो गयें।
  6.  अभी तक इजराइल ने हमास के लीड़र इस्माइल हनीयेह और हिज़बुल्लाह के लीड़र नसरुल्लाह को मार दिया हैं।
  7.  ईरान के पूर्व राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की भी मौत एक प्लेन क्रेश में हो गयीं। जिसमें ईरानी विदेशी मंत्री भी शामिल था। जिसका शक भी इजराइल पर गया।
  8.  इन घटनाओं के बाद, विशेषज्ञों ने इस बात की आशंका जताई कि इज़राइल और ईरान के बीच बढ़ता तनाव भविष्य में बड़े पैमाने पर युद्ध में बदल सकता है।

7 अक्टूबर 2023 को हमास द्वारा इज़राइल पर किए गए हमले ने मध्य पूर्व में लंबे समय से चले आ रहे तनाव को एक नई दिशा दी। इस हमले के बाद, इज़राइल और ईरान के बीच की पहले से ही तनावपूर्ण स्थिति और भी गंभीर हो गई। ईरान ने हमास का खुला समर्थन किया, जिससे इज़राइल की प्रतिक्रिया और कड़ी हो गई। इज़राइल ने हमास और ईरान को इस हमले के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए ईरान पर दबाव बढ़ाया। इस संघर्ष ने क्षेत्रीय शांति को एक बार फिर से खतरे में डाल दिया।

ईरान की सेना और हिज़बुल्लाह की भागीदारी से यह स्पष्ट हुआ कि यह संघर्ष केवल इज़राइल और फिलिस्तीन तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें क्षेत्रीय शक्तियों की भी भूमिका है। ईरान और इज़राइल के बीच कूटनीतिक तनाव बढ़ते-बढ़ते सैन्य तनाव में बदल सकता है, जिससे पूरे क्षेत्र में अस्थिरता की संभावना है।

इज़राइल ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अपनी चिंताओं को फिर से सामने रखा है, और आने वाले समय में यह मुद्दा और भी बड़ा बन सकता है। वैश्विक स्तर पर भी इस संघर्ष के असर को महसूस किया गया है, जहाँ अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने शांति और स्थिरता के लिए अपने प्रयास तेज कर दिए हैं।

इस पूरे ब्लॉग से यह स्पष्ट होता है कि ईरान और इज़राइल के बीच का संघर्ष न केवल उनके लिए, बल्कि पूरे मध्य पूर्व के लिए एक गंभीर खतरा है। दोनों देशों के बीच बढ़ता तनाव और कूटनीतिक संघर्ष यह दर्शाता है कि आने वाले समय में इस क्षेत्र में और भी बड़े टकराव की संभावना हो सकती है।

आपको यह ब्लांग कैसा लगा, हमें कमेंट बाक्स के माध्यम से जरुर बतायें। धन्यवाद…

1. ईरान की इस्लामिक क्रांति के बाद समाज में क्या बड़े बदलाव आए?

1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद ईरान में शरिया कानून लागू हुआ, महिलाओं की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाए गए और धार्मिक नेताओं की सत्ता बढ़ गई। पश्चिमी प्रभावों को समाप्त कर इस्लामी संस्कृति को पुनर्जीवित किया गया।

2. ईरान और इजराइल के बीच दुश्मनी कब शुरू हुई?

ईरान और इजराइल के बीच दुश्मनी 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद शुरू हुई। अयातुल्ला खुमैनी ने इजराइल को “इस्लाम का दुश्मन” करार दिया और फिलिस्तीनी मुद्दे के समर्थन में इजराइल के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया।

3. इस्लामिक क्रांति के बाद ईरान की महिलाओं की स्थिति कैसे बदली?

इस्लामिक क्रांति के बाद महिलाओं पर हिजाब पहनना अनिवार्य हो गया और उनके अधिकारों में कटौती हुई। पहलवी शासन के विपरीत, महिलाओं की स्वतंत्रता और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी को सीमित कर दिया गया।

4. ईरान और अमेरिका के बीच दुश्मनी का प्रमुख कारण क्या है?

ईरान और अमेरिका के बीच दुश्मनी 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद गहरी हो गई, जब ईरानी क्रांतिकारियों ने अमेरिकी दूतावास पर कब्जा कर 52 अमेरिकी नागरिकों को बंधक बना लिया। इसके बाद परमाणु कार्यक्रम को लेकर संबंध और भी खराब हुए।

5. ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की क्या चिंताएँ हैं?

अमेरिका और इजराइल को आशंका है कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम के तहत परमाणु हथियार विकसित कर सकता है, जिससे क्षेत्रीय और वैश्विक शांति को खतरा हो सकता है। इसी कारण से ईरान पर कई आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए हैं।

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