“गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh) और उनके चार साहिबजादो की बहादुरी को आज सारी दुनिया जानती है। गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh) सिखों को दसवें और अंतिम गुरु थे। गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बाद उन्होंने गुरु की पदंवी धारण की। वे एक महान योद्धा, चिंतक, कवि, भक्त और आध्यात्मिक नेता थे। उन्होंने 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की थी। उनकें चार पुत्र थे जो चार साहिबजादों से सम्बोंधित किए जाते हैं। गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh)जी को सरबंसदानी भी कहा जाता है, उन्होंने अपने सारे वंश को देश, धर्म व मानवता पर बलिदान कर दिया।”
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जीवन परिचय-Life introduction
गुरु गोबिंद सिह (Guru Gobind Singh)का जन्म 22 दिसम्बर 1666 को पटना में हुआ था। उनके पिता गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी और माता गुजरी थीं। गुरु जी के पिता जी उस समय धर्मोपदेश के लिए असम गये हुए थें। उन्हे बचपन में गोबिंद राय के नाम से बुलाया जाता था। पटना में जहां उनका जन्म हुआ था, उसे अब तख्त श्री हरिमंदर जी पटना साहिब नाम से जाता है। गुरु जी ने अपने जीवन के प्रथम चार वर्ष वहीं बिताये थे।
मार्च 1672 में गुरु जी का परिवार हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया। चक्क नानकी ही आजकल आनन्दपुर साहिब कहलाता है। यहीं पर गुरु जी की शिक्षा-दीक्षा हुई। यहीं पर गुरु जी ने फारसी, सस्कृंत भाषाओं का अध्ययन किया। और एक योद्धा के रुप में भी प्रशिक्षित हुए।
आन्दपुर आनन्द धाम था क्योकि यहाँ पर सभी वर्ण, रंग, जाति, सम्प्रदाय के लोग बिना किसी भेदभाव समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान अर्जित करते थे। गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh)जी शान्ति, क्षमा, सहनशीलता की प्रतिमूर्ति थे।
कश्मीरी पण्डितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के विरुद्ध जब एक फरियादी गुरु तेग बहादुर के पास ये फरियाद लेकर आया कि उन आक्रांताओं ने पण्डितों से यह कहा है कि अगर वह इस्लाम नहीं स्वीकार करना चाहते तो वह एक ऐसे महापुरुष को लेकर आये जो इस्लाम स्वीकार न करें और अपना बलिदान दे सकें। गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh) उस समय मात्र 9 वर्ष के थे।
उन्होंने अपने पिता जी से कहा कि आपसे बड़ा महापुरुष कौन हो सकता है। कश्मीरी पण्डितों की फरियाद पर गुरु तेग बहादुर उनके साथ चल दिये। और वादे अनुसार उन्होंने मगुल आक्रांता औरंगज़ेब के आगे इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया। इस कारण 11 नवम्बर 1675 को आक्रांता औरंगज़ेब ने चांदनी चौक में खुलेआम गुरु तेगबहादुर का सिर कलम करवा दिया।
इसके पश्चात वैशाखी के दिन 29 मार्च 1676 को गोविन्द सिंह को सिखों के दसवें गुरु घोषित किया गया। गुरु बनने के बाद भी उनकी शिक्षा जारी रही। 1684 में उन्होंने चण्डी दी वार की रचना की। 1685 तक वह युमना नदी के किनारे पाओंटा नामक स्थान पर रहे।
गुरु जी की तीन पत्नियाँ थी। उनका पहला विवाह माता जीतों से 21 जून, 1677 को 10 साल की उम्र में आनन्दपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। इनके तीन पुत्र हुए- जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह। 17 वर्ष की उम्र में उनका दूसरा विवाह माता सुन्दरी के साथ 4 अप्रैल, 1684 को आनन्दपुर में हुआ। उनका एक बेटा जिसका नाम अजित सिंह था। गुरु जी का तीसरा विवाह 33 वर्ष की आयु में माता साहिब देवन से 15 अप्रैल, 1700 को हुआ। इनकी कोई सन्तान नहीं थी।
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खालसा पंथ की स्थापना- Establishment of Khalsa Panth
गुरु गोबिंद सिंह(Guru Gobind Singh) का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया लेकर आया। गुरु जी ने सन् 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा मतलब सिख धर्म की जिसनें विधिवत् शिक्षा ली है, इसका अर्थ है, स्पष्ट होना या मुक्त होना।
गुरुजी ने सभी अनुयायियों से बैसाखी के दिन 1699 को आनंदपुर में एकत्र होने को कहा। वहां उन्होंने पानी और पताशा का मिश्रण तैयार किया व इस मीठे पानी को “अमृत” कहा।
उन्होंने तब स्वयंसेवकों के लिए कहा जो गुरु के लिए अपने जीवन का बलिदान करने के लिए तैयार हैं, वह खालसा से जुड़े। पांच लोगों ने स्वेच्छा से खालसा को अपनाया और गोबिंद राय ने इन पांच आदमियों को “अमृत” दिलाया और अंतिम नाम “सिंह” दिया। उन्होंने स्वयं अमृत भी लिया और गोबिंद सिंह नाम अपनाते हुए एक बपतिस्मा प्राप्त सिख बन गए।
खालसा पंथ की स्थापना का मकसद था कि लोग धर्म और नेकी के लिए हमेशा तैयार रहें। गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh)ने आनंदपुर, पंजाब में अपने अनुयायियों के साथ मिलकर राष्ट्र हित में खालसा पंथ का निर्माण किया। उन्होंने एक ऐसा पंथ तैयार किया जो राष्ट्र पर बलिदान होने को सज रहे।
गुरु जी ने इसके पांच प्रतीकों को भी परिभाषित किया, जो केश(बिना कटे बाल), कंघा (एक लकड़ी की कंघी),कड़ा (एक लोहो का कंगन), कछेरा (सूती अंडरवियर), और कृपाण (चाकू) है।
खालसा की स्थापना इस्लामिक युग के दौरान सिखों के उत्पीड़न के जवाब में अंतरात्मा और धर्म की स्वतंत्रता के लिए एक आदेश के रुप में की गई थी। खालसा भक्ति, शक्ति व प्रतिबद्धता के प्रतीक के रुप में स्थापित हुआ था।
खालसा वे पुरुष और स्त्री है, जिन्हें सिख धर्म में बपतिस्मा दिया गया है, और जो सिख नियम संहिता और सम्मेलनों का पालन करते हैं, साथ ही साथ पांच चीजें धारण करते हैं।
मोहनदासकरमचंद्र गांधी- व्हाई इज फॉदरऑफ द नेशन
गुरु गोबिंद सिंह के प्रमुख कार्य- Major works of Guru Gobind Singh
- गुरु जी ने ही सिख धर्म में सरनेम में सिंह लगाने का चलन शुरु किया।
- गुरु जी ने ही खालसा पंथ की स्थापना की। जो कि सिखों के सैन्य, नागरिक और कार्यकारी के लिए जिम्मेदार थे। खालसा उन्हें धार्मिक पहचान देता है।
- गुरु जी ने ही गुरु ग्रंथ साहिब की रचना पूरी की। ग्रन्थ में भगवान के भजनों का सग्रह व सभी गुरुओं की शिक्षायें निहित है। गुरु ग्रंथ साहिब सिखों का पवित्र ग्रंथ है। गुरु साहिब ने अपने उत्तराधिकारी के रुप में पवित्र पाठ की पुष्टि की और पवित्र पाठ को आध्यात्मिक नेतृत्व पर पारित किया।
- “चंडी दी वार” गुरु गोबिंद सिंह(Guru Gobind Singh) द्वारा लिखी एक वीररस से पूर्ण रचना है। गुरु जी द्वारा इसको लिखने का मकसद समाज के मानसिक गठन में एक बड़ा परिवर्तन लाना था।
- गुरु जी ने युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहने को कहा। इसके लिए उन्होंने पंच ककार पहनना जरुरी बताया। इसमें केश, कच्छा, कड़ा, कंघा और कृपाण जरुरी बतायें गये है।
- गुरु जी नें अपने अनुयायियों के साथ मुगलों के खिलाफ कई लड़ाईयां लड़ी।
- गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh)जी अपने जीवन में 14 युद्ध किए. इस दौरान उन्हें अपने परिवार पुत्रों सहित कई सिख सैनिकों को खोना पड़ा।
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा लड़े गयें युद्ध- Wars fought by Guru Gobind Singh Ji
गुरु गोबिंद सिंह(Guru Gobind Singh) ने मुगलों के अन्याय, पाप और अत्याचार के विरुद्ध उनसे 14 बार युद्ध किया। धर्म और समाज की रक्षा के लिए उन्होंने अपना पूरा परिवार बलिदान कर दिया। जिसके लिए उन्हें “सरबसदानी” भी कहा जाता है। गुरु जी ने ही ‘वाहे गुरु का खालसा, वाहे गुरु की फ़तेह’ का नारा दिया था। गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh)द्वारा लड़ी गई कुछ उल्लेखनीय लड़ाईयों में शामिल है।
- भंगानी की लड़ाई (1688)- गुरु गोबिंद सिंह ने भंगानी में शिवालिक पहाड़ियों के पहाड़ी प्रमुखों के खिलाफ अपनी पहली बड़ी लड़ाई का नेतृत्व किया। संख्या में कम होने के बावजूद, गुरु गोबिंद सिंह ने उल्लेखनीय वीरता का प्रदर्शन किया और लड़ाई बेनतीजा समाप्त हो गई।
- नादौन की लड़ाई (1691)- गुरु गोबिंद सिंह को नादौन में मुगल गर्वनर कमाल खान और पहाड़ी सरदारों की संयुक्त सेना का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में गुरु जी की सेना विजयी हुई और उन्होंने अपनी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन किया।
- आनंदपुर की लड़ाई (1700-1704)- गुरु गोबिंद सिंह द्वारा स्थापित शहर आनंदपुर साहिब को मुगलों और उनके सहयोगियों द्वारा लगातार घेराबंदी और हमलों का सामना करना पड़ा। गुरु गोबिंद सिंह के नेतृत्व में सिख समुदाय ने इस अवधि के दौरान कई हमलों के खिलाफ शहर की रक्षा की।
- चमकौर की लड़ाई (1704)- गुरु गोबिंद सिंह ने अपने अनुयायियों के एक छोटे समूह के साथ, विशाल मुगल सेना के खिलाफ चमकौर के किले की रक्षा की। अत्यधिक संख्या में होनं के बावजूद, सिखों ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी। इस युद्ध में गुरु जी दो छोटे पुत्रों, साहिबज़ादा अजीत सिंह और साहिबज़ादा जुझार सिंह ने असाधारण वीरता का प्रदर्शन किया।
- मुक्तसर की लड़ाई (1705)- आनंदपुर साहिब को खाली कराने के बाद, गुरु गोबिंद सिंह और उनके अनुयायियों, जिनमें “40 मुक्त लोग” (मुक्ता) भी शामिल थे, का मुगल सेना ने पीछा किया। इस युद्ध में कई सिख पुरुषों और महिलाओं ने अपने जीवन को बलिदान किया था। जिससे उन्हे “मुक्ता” की उपाधि मिली।
गुरु जी नें जितनी भी लड़ाईयां लड़ी वह कभी खुद के लाभ के लिए या क्षेत्रीय विस्तार के लिए नहीं लड़ी। बल्कि उनका मकसद सिख समुदाय की रक्षा करना तथा उन पर हों रहे अत्याचार और उत्पीड़न के खिलाफ धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करना था।
गुरु गोबिंद सिंह जी प्रमुख रचनायें- Major works of Guru Gobind Singh Ji
गुरु गोबिंद सिंह जी ने कई गन्थों की रचना की थी। इनमें कुछ रचनाएं प्रमुख है-
- जाप साहिब
- अकाल उस्तत
- जफरनामा
- खालसा की महिमा
- चंडी दी वार
- बचित्र नाटक
- चंडी चरित्र
गुरु गोबिंद सिंह जी का निधन- Death of Guru Gobind Singh Ji
मगुल आंक्राता औरंगजेब की मृत्यु के बाद गुरुजी ने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी और बहादुरशाह के संबध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीर खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिये। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखें से घातक वार किया। जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरु जी नांदेड साहिब में दिव्य प्रकाश में तन्मय हो गए।
अपने अंत समय में उन्होंने सिखों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया बंदासिह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और दुश्मन की ईंट से ईंट बजा दी।
चार साहिबजादों की वीरता- Bravery of four Sahibzadas-
चार साहिबज़ादे शब्द से गुरु श्री गोबिंद सिंह जी के चार सुपुत्रों- साहिबज़ादा अजीत सिंह, जुझार सिंह, ज़ोरावर सिंह व फतेह सिंह को संबोधित किया जाता हैं।
गुरु जी, चार साहिबज़ादे, माता गुजरी, गुरु की माहिल, माता जीतो जी, उनकी पत्नी, पांच पंज प्यारों और कुछ सौ सिखों ने 20 दिसंबर 1704 की ठंडी रात में आनंदपुर साहिब से रोपड़ (वर्तमान पंजाब की ओर प्रस्थान किया।
दिसंबर 20-21 की आधी रात को, गुरु जी के परिवार पर मुगलों ने आनंदपुर साहिब से लगभग 25 किलोमीटर दूर सरसा नदी के पास हमला कर दिया। गोबिंद सिंह जी का परिवार अलग हो कर टूट गया। यह स्थान अब “परिवार विचारो” के नाम से जाना जाता है।
गुरु गोबिंद सिंह जी दो बड़े साहिबजादों, 5 पंज प्यारों और 40 सिखों के साथ चमकौर की ओर बढ़े और 21 दिसंबर की दोपहर को वहां पहुंचे।
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दो छोटे साहिबज़ादे और माता गुजरी- Two younger Sahibzades and mother Gujri
लड़ाई के दौरान गुरु जी दो सबसे छोटे बेटे, ज़ोरावर व फ़तेह और उनकी दादी माता गुजरी जी बाकी सिखों से अलग हो गए। अचानक रास्ते में उन्हे गंगू मिल गया, जो किसी समय पर गुरु महल की सेवा करता था। गंगू ने उन्हे अपने यहां शरण लेने को कहा। पर वे गंगू की असलियत से वाकिफ नहीं थे।
नौकर गंगू ने लालच में आकर तुरंत सरहिंद के नवाब वजीर खाँ को गुरु जी माता जी और उनके दो छोटे साहिबज़ादो के उसके यहां होने की खबर दे दी जिसके बदले उस आंक्राता ने उसे सोने की मोहरें भेंट की।
वजीर खां के सैनिकों ने माता गुजरी और क्रमशः 7 व 9 वर्ष के दो छोटे साहिबज़ादो को गिरफ्तार कर लिया। उन्हे लाकर ठंड़े बुर्ज में रखा गया और उस ठिठुरती ठंड से बचने के लिए कपड़े का एक टुकड़ा तक न दिया गया।
वे रात भर ठंड से ठिठुरते रहे। छोटे साहिबजादो को सुबह वजीर खां के सामने पेश किया गया। जहां उन साहिबजादो से अपना धर्म छोड़कर इस्लाम स्वीकारने को कहा गया। सभा में पहुंचते ही दोनों साहिबज़ादो ने जोर से जयकारा लगाया- “जो बोले सो निहाल, सत श्री अंकाल”।
सभा में मौजूद मुलाजिमों ने साहिबज़ादो को वजीर खां के सामने सिर झुकाकर सलामी देने को कहा, लेकिन इस पर उन्होंने जो जवाब दिया उसे सुनकर सभी चुप हो गये।
दोनो ने बेखौफ होकर जवाब दिया कि ‘हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादा के बलिदान को बर्बाद नहीं होने देंगे, अगर हमने किसी के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादा को क्या जवाब देंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर सिर कलम करवाना सही समझा, लेकिन झुकना नहीं’।
वजीर खां ने दोनों साहिबज़ादो को काफी डराया, धमकाया और प्यार से भी इस्लाम कबूल करने को राजी किया पर वे दोनो अपने निर्णय पर अटल थे। आखिर में उस आंक्राता ने दोनो साहिबज़ादो को जिंदा दीवारों मे चुनवाने का ऐलान कर दिया। जब दोनों साहिबज़ादो को दीवार में चुनना आरंभ किया गया तब उन्होंने ‘जपुजी साहिब’ का पाठ आरंभ कर दिया और अंदर भी दीवार के बन जाने के बाद भी जयकारा बोलते रहे।
बाद में वजीर खां के कहने पर दीवार को कुछ समय के बाद तोड़ा गया, ये देखने के लिए कि साहिबज़ादो की सांसे चल रही हैं या नहीं। तब दोनों साहिबज़ादो की कुछ श्वास बाकी थी, लेकिन उन मुलाजिमों का कहर अभी भी ज़िदा था, उन्होंने दोनों को जबर्दस्ती मौत के गले लगा दिया।
उधर यह दुखद खबर पाकर माता गुजरी जी ने भी अकाल पुरख को इस गर्वमयी बलिदान के लिए शुक्रिया किया और अपने प्राण त्याग दिये।
Bhagat Singh- Young Pride Pride |भगत सिंह- युवा गौरव अभिमान
दो बड़े साहिबज़ादो की वीरता- Bravery of two great Sahibzadas
गुरु जी के सबसे बड़े पुत्र अजीत सिंह जी थे। चमकौर के युद्ध में अजीत सिंह ने अद्धभुत वीरता का परिचय दिया। पंच प्यारों ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि वे इस युद्ध में भाग न ले, क्योकि वहीं गुरु जी की परम्परा को आगे बढ़ा सकते थे। लेकिन अपने पुत्र की इस अदभ्य इच्छा के कारण गुरु जी ने उन्हें युद्ध में सम्मिलित होने की इजाजत दे दी।
उन्होंने स्वयं अपने हाथों से अजीत सिंह को युद्ध लड़ने के लिए तैयार किया, अपने हाथों से उन्हें शस्त्र दिए और पांच सिखों के साथ उन्हें किले से बाहर रवाना किया। कहते है रणभूमि में जाते ही अजीत सिंह ने मुगल फौज को थर-थर कांपने पर मजबूर कर दिया। अजीत सिंह कुछ यूं युद्ध कर रहे थे मानों कोई बुराई पर कहर बरसा रहा हो।
अजीत सिंह के साहस और वीरता के आगे मुगल भाग खड़े हुए। लेकिन जब अजीत सिंह के तीर समाप्त होने लगे, और दुशमन को जैसे ही यह अंदाजा हुआ तो उन आक्रांताओं ने उन्हें घेरना शुरु किया। लेकिन अजीत सिंह ने म्यान से तलवार निकाल कर मुगलों को काटना शुरु कर दिया। उनकी तलवारबाजी को पूरी सिख फौज में भी कोई चुनौती नहीं दे सकता था तो फिर मुगल फौज उन्हें कैसे रोक सकती थी। वह एक-एक कर सभी मुगल सैनिकों को काट रहे थे पर तभी उनकी तलवार भी टूट गई।
फिर उन्होंने म्यान से लड़ना शुरु कर दिया, वे आखिरी सांस तक लड़ते रहे और फिर आखिरकार वे महज 17 वर्ष की आयु में वीरगति को प्राप्त हो गये।
उनके बाद उनके छोटे भाई जुझार सिंह जो कि सिर्फ 15 वर्ष के थे, ने मोर्चा संभाला और अपने बड़े भाई के पदचिन्हों पर चलते हुए अतुलनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गयें।
अजीत सिंह के नाम पर पंजाब के मोहाली शहर का नामकरण ‘साहिबज़ादा अजीत सिंह नगर’ रखा गया।
“गुरु गोबिंद सिंह और उनके चार साहिबज़ादो की वीरता इतिहास के पन्नों में अविस्मरणीय रहेंगी। धर्म और देश की रक्षा के लिए उन्होंने अपने पूरे परिवार को बलिदान कर दिया।”
प्रश्न 1: गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना क्यों की और इसमें क्या महत्वपूर्ण था?
उत्तर: गुरु गोबिंद सिंह ने 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की ताकि सिख समुदाय धर्म, नैतिकता, और सामाजिक जागरूकता के माध्यम से एकता और समरसता का सन्देश फैला सके। खालसा पंथ ने सिखों को सामूहिक रूप से जोड़कर एक समृद्धि और साहस भरे समुदाय की नींव रखी।
प्रश्न 2: गुरु गोबिंद सिंह ने कौन-कौन से पांच प्रतीकों को खालसा में परिभाषित किया और इनका क्या महत्व है?
उत्तर: गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा में पंज प्रतीकों को शामिल किया: केश (बिना कटे बाल), कंघा (एक लकड़ी की कंघी), कड़ा (एक लोहे का कंगन), कछेरा (सूती अंडरवियर), और कृपाण (एक लोहे का चाकू)। ये प्रतीक सिख धर्म में एकता, साहस, और नेतृत्व की अद्वितीयता को प्रतिष्ठित करते हैं।
प्रश्न 3: गुरु गोबिंद सिंह की महत्वपूर्ण योजनाएं और उनके योगदान का सारांश क्या है?
उत्तर: गुरु गोबिंद सिंह ने सिख समाज को सामूहिक रूप से जोड़कर खालसा पंथ की स्थापना की, गुरु ग्रंथ साहिब की रचना की, चंडी दीवार की रचना की, और सिखों को धर्मिक और नैतिक मूल्यों के प्रति समर्पित किया। उन्होंने युद्ध में समृद्धि के लिए सिखों को प्रेरित किया और उनके जीवन के दौरान 14 युद्ध लड़े।