बोस (Bose) का जीवन परिचय | बोस (Bose) की शिक्षा दीक्षा | स्वतंत्रता आन्दोलन में प्रवेश | हरिपुरा अधिवेशन | फारवर्ड ब्लाक स्थापना | जर्मन प्रवास | आजाद हिन्द फौज का गठन | आजादी के दौरान बोस (Bose) जी का कारावास | ऑस्ट्रिया में प्रेम विवाह | दुर्घटना और मृत्यु की खबर
“बोस (Bose) जी एक ऐसे देशभक्त थे, जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर दिया। देश के लिए उन्होंने आईसीएस का पद तक ठुकरा दिया। देश के लिए उनका अन्यय समर्पण और त्याग आज के युवाओं के लिए एक प्ररेणा है। देश के प्रति उनकी दीवानगी इस हद तक थी कि वह उस समय ब्रिटिश काल की आईसीएस परीक्षा में पहली बार में ही प्रथम स्थान प्राप्त करने के बाद भी उसें सिर्फ इसलिये छोड़ दिया क्योकि वह देश को अग्रेजों से आजाद कराना चाहते थे।
आजादी के बाद उनके कद को कम करने की कई कोशिशे की गई, हर बार यह बताया गया कि देश को आजादी अहिंसा से मिली। जबकि देश की आजादी मे जितना हाथ गांधी जी के अहिंसक आदोंलनों का था, उतना ही नेताजी की आजाद हिंद फौज का भी।”

जीवन परिचय-
बोस (Bose) जी का जन्म 23 जनवरी, 1897 को ओडिशा के कटक में हुआ था। उनके पिता जी श्री जानकीनाथ बोस और माता जी का नाम प्रभावती था। इनके पिता जी कटक शहर के नामी वकील थे। पहले वे सरकारी वकील थे बाद में वे निजी प्रैक्टिस करने लगे थे। उन्होनें कटक की महापालिका में भी काम किया और बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। बोस जी (Bose) कुल 14 भाई-बहन थे। सुभाष जी उनकी नौवी सन्तान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में सुभाष बाबू, शरद जी से अधिक लगाव रखते थे। शरदचन्द्र, बोस जी (Bose) के दूसरे बड़े भाई थे। सुभाष बाबू, शरद जी को मेजदा कहते थे।
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बोस जी की शिक्षा-दीक्षा- Bose Ji’s education-initiation-
सुभाष जी की प्राइमरी शिक्षा कटक के प्रोटेस्टेण्ट स्कूल से हुई। सन् 1909 में उन्होने रेवेनशा कॉलजियेट स्कूल में दाखिला लिया। कॉलेज के प्रिन्सिपल बेनीमाधव दास जी के व्यक्तित्व की गहरी छाप बोस(Bose) बाबू पर पड़ी। 1915 में इण्टर की परीक्षा बीमारी से ग्रसित होने के बाद भी दी और उसे द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण किया।
1916 में उन्होंने प्रसीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र में बीए (ऑनर्स) में दाखिला लिया। उस समय कॉलेज मे किसी बात को लेकर अध्यापकों और छात्रों के बीच झगड़ा हो गया, जिसमें बोस जी (Bose) ने छात्रो का नेतृत्व किया। जिस कारण उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज से एक साल के लिये निकाल दिया गया और परीक्षा देने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
49 बंगाल रेजीमेण्ट में भर्ती के लिए भी उन्होंने परीक्षा दी परन्तु आँखें खराब होने के कारण उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया। बाद में उन्होंने टेरीटोरियल आर्मी की परीक्षा दी और फोर्ट विलियम सेनालय में रँगरुट के रुप में प्रवेश पा गये।
1919 में उन्होंने बीए (ऑनर्स) की परीक्षा प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण की। कलकत्ता विश्वविघालय मे उनका दूसरा स्थान था।
इनके पिता जी इच्छा थी कि बोस जी (Bose) आईसीएस बनें। पिता जी इच्छा अनुसार वे इसकी तैयारी के लिए 15 सितम्बर 1919 को इंग्लैण्ड चले गये। परीक्षा के लिए लन्दन के किसी स्कूल में दाखिला न मिलने पर किसी तरह किट्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास (ऑनर्स) की परीक्षा का अध्ययन हेतु उन्हें प्रवेश मिल गया। सन् 1920 में उन्होंने आईसीएस की परीक्षा वरीयता सूची मे चौथे स्थान के साथ पास की।
आईसीएस से त्यागपत्र- Resignation from ICS
इसके बाद सुभाष जी ने अपने बड़े भाई शरतचन्द्र बोस (Bose)को पत्र लिखकर बताया कि उनके दिलो-दिमाग में तो जगह महर्षि दयानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शो ने ले रखी है और इस तरह से वह अंग्रेजों की गुलामी आईसीएस बनकर नही कर पायेंगे। 22 अप्रैल 1921 को उन्होंने अपना त्यागपत्र भारत सचिव ई. एस. मान्टेग्यू को भेज दिया। और एक पत्र देशबन्धु चित्तरंजन दास जो को लिखा। उन्हे इस मुद्दे पर अपनी माता जी का एक पत्र मिला जिसमें बोस जी (Bose) की माता जी लिखा की चाहे पिता जी, परिवार के लोग व अन्य लोग कुछ भी कहे उन्हें उन पर गर्व है। बोस जी 1921 को भारत वापस लौट आये।
स्वतन्त्रता आदोलनों में प्रवेश- Entry into freedom movements
देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रभावित होकर सुभाष बाबू उनके साथ काम करना चाहते थे। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सलाह पर भारत आने पर वे सबसे पहले गांधीजी से मिलने गये, उस समय गांधी मुम्बई के मणिभवन में निवास कर रहे थे। वही पर 20 जुलाई 1921 को सुभाष जी गांधी से मिले। गांधी जी ने उन्हे दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाष जाकर दासबाबू से मिलें।
उन दिनों गाधी जी देश में असहयोग आंदोलन चला रहे थे। दासबाबू बंगाल में उसका नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ ही बोस जी भी जुड़ गये। 5 फरवरी 1922 को चौरी चौरा की घटना के बाद गांधी जी ने आंदोलन वापस ले लिया। जिसके कारण दासबाबू ने काग्रेस के अन्दर स्वराज पार्टी की स्थापना की। स्वराज पार्टी ने कोलकाता महापालिका का चुनाव भी लड़ा और वे कोलकाता के महापौर बन गये। सुभाष जी को उन्होंने महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। उन्होंने अपने कार्यकाल मे पूरी महापालिका का ढाँचा ही बदल दिया। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेजी नाम बदलकर भारतीय नाम कर दिये गये। स्वतन्त्रता संग्राम में बलिदान हुए वीरों के परिजनों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।

जवाहरलाल नेहरु के साथ मिलकर उन्होंने युवाओं के लिए इण्डिपेण्डेंस लीग शुरु करी। सन् 1927 में साइमन कमीशन के भारत आने पर उन्होंने कोलकाता में इसका विरोध किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिए कांग्रेस ने उस समय मोतीलाल नेहरु के नेतृत्व मे एक आयोग का गठन किया जिसके सदस्य सुभाष बाबू भी थे। इसमें अंग्रेजो से डोमिनियन स्टेटस की मांग की गई।
गांधी जी व उस समय मोतीलाल नेहरु के नेतृत्व में हुए सन् 1928 के कांग्रेस अधिवेशन में भी यही मांग की गई। पर सुभाषबाबू और जवाहरलाल नेहरु इसके पक्ष मे नही थे। वे पूर्ण स्वराज की मांग पर अड़े थे। इसके लिए गांधी जी ने अंग्रेजो को एक साल का समय दिया। पर अंग्रेजो ने उनकी बात नही मानी। इसके बाद कांग्रेस ने भी पूर्ण स्वराज की मांग शुरु कर दी। 1930 के लौहार अधिवेशन मे तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रुप में मनाया जाएगा।
सुभाषबाबू 26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्रीय ध्वज के साथ एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे। इसमें पुलिस ने लाठीचार्ज किया और सभी को जेल भेज दिया गया। सुभाषबाबू के जेल मे रहने के दौरान ही गांधी और ईरविन के बीच समझौता हुआ। जिसके कारण सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया। सिर्फ तीन को छोड़ कर वे थे- भगत सिह, सुखदेव और राजगुरु। अंग्रेजो ने उन्हे रिहा करने से मना कर दिया। बोस जी चाहते थे इस विषय पर गांधी जी अंग्रेज सरकार के साथ अपना समझौता तोड़ थे, पर वे राजी ना हुए। इस मुद्दे पर वे गांधी जी और कांग्रेस दोनो के तरीकों से बहुत नाराज हुए।
मंहिलाओं पर बढ़ती हिंसा और मणिपुर घटना
हरिपुरा अधिवेशन- Haripura session
सन् 1938 में कांग्रेस का अधिवेशन हरिपुरा में होना तय हुआ। इस अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए गांधी जी ने बोस जी का समर्थन किया। ये कांग्रेस पार्टी का 51वां अधिवेशन था। इसलिये इस अधिवेशन में 51 बैलों द्वारा खींचे गये रथ में बोस बाबू का स्वागत किया गया।
इस अधिवेशन में सुभाष जी भाषण बहुत प्रभावी था। शायद ही किसी व्यक्ति ने अध्यक्ष रुप मे ऐसा प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने योजना आयोग का गठन किया, जिसके पहले अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरु बनाये गये। सुभाष जी ने बंगलौर में एक विज्ञान परिषद की स्थापना की जिसके अध्यक्ष मशहूर वैज्ञानिक सर विश्वेश्वय्या जी थे। 1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया। सुभाष जी ने चीनी जनता की सहायता के लिए डॉ. द्वारकानाथ कोटनिस के नेतृत्व मे चिकित्सकीय सहायता दल भेजने का निर्णय लिया।
अध्यक्ष पद से इस्तीफा- Resignation from the post of President
अध्यक्ष पद के रुप में उनकी कार्यशैली से गांधी जी बोस जी से नाराज थे। इसी दौरान यूरोप ने द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग ले लिया। सुभाषबाबू चाहते थे इस परिस्थिति का फायदा उठाकर इंग्लैंड को अपने देश से खदेड़ दिया जाए। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान इसके लिए कदम में उठाने शुरु कर दिये परन्तु गांधी जी इससे सहमत नही थे।
1939 में जब नया अध्यक्ष बनने का समय आया तो बोस जी चाहते थे कि ऐसा कोई व्यक्ति अध्यक्ष बनाये जाये जो इस मामले मे किसी भी दबाव में न आये। ऐसा कोई ओर न मिलने पर वह स्वंय अध्यक्ष बनें रहना चाहे। पर गांधी यह नही चाहते थे, यह उनकी अंहिसा के खिलाफ था जिसके कारण उन्होंने पट्टभि सीतारमैंया को चुना जो कि एक कठपतुली थे।
उस समय हर कोई सुभाष जी को ही अध्यक्ष पद पर चाहता था। कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गांधी जी को इस मामले में पत्र भी लिखा की सुभाष जी को ही अध्यक्ष रहने दिया जाए। मेघनाद साहा और प्रफुल्लचन्द्र राय जैसे वैज्ञानिक भी उन्हे ही अध्यक्ष के रुप में देखना चाहते थे। पर गांधी ने इस मुद्दे पर किसी की बात नही मानी क्योकि इससे उनका वर्चस्व कांग्रेस में कम हो सकता था।
उस समय सभी को चौकाते हुए सुभाष जी चुनाव जीत लिया, उन्हे 1580 मत मिलें और सीतारमैंया को सिर्फ 1377 मत मिलें। सुभाषबाबू 203 मतों से विजय रहें। गांधी जी इसे अपने ईगों पर ले लिया और कांग्रेस को धमकी दी वे कांग्रेस से हट सकते है। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 लोगों ने इस्तीफा दे दिया। नेहरु तटस्थ रहे और अकेले शरदबाबू सुभाष जी के साथ रहें।
1939 का अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाष जी को तेज बुखार था और उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाकर अधिवेशन में लाया गया। गांधी जी इसमें उपस्थित नही थे और अन्य लोगों ने भी उनका साथ नही दिया। सुभाष जी ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की पर गांधी जी का ईगों बीच में आ रहा था। परिस्थितियाँ उनके प्रतिकूल बना दी गयी, जिससे तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष जी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
फॉरवार्ड ब्लॉक की स्थापना- Establishment of Forward Block
3 मई 1939 को सुभाष जी कांग्रेस के अन्दर ही फॉरवार्ड ब्लॉक की स्थापना की। कुछ दिनों कांग्रेस ने उन्हे पार्टी से ही निकाल दिया। इसके बाद फॉरवार्ड ब्लॉक एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी। 3 मई 1939 को बोस जी को जर्मनी और ब्रिटेन की बीच युद्ध शुरु होने की जानकारी मिली। उन्होंने कहा कि यह एक सुनहरा मौका है भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए।
अगले वर्ष जुलाई में कलकत्ता स्थित हालवेट स्तम्भ जो कि भारत की गुलामी का प्रतीक था सुभाष के नेतृत्व में उनकी यूथ बिग्रेड ने रातोरात जमींदोज कर दिया। इसके माध्यम से सुभाष ने यह संदेश दिया कि वह ब्रिटिश साम्राज्य की नींव भारत में उखाड़ फेंकेगें।
इसके बाद फॉरवार्ड ब्लॉक के सभी सदस्यों को जेल मे डाल दिया गया। उस युद्ध के माहौल में सुभाष जी निष्क्रिय नही रहना चाहते थे। इसलिए उन्होंने जेल में ही आमरण अनशन शुरु कर दिया। हालत खराब होंने पर उन्हे रिहा कर दिया गया पर उन्हें घर पर ही नजरबंद रखा गया। जिससे वह कोई भी एक्शन न ले पाये।
नजरबन्दी से मुक्ति- Release from detention
नजरबन्दी से बचने के लिए बोस जी ने एक योजना बनाई। 16 जनवरी 1941 को वे एक पठान मो. ज़ियाउद्दीन के वेश में पुलिस को चकमा देकर निकले। उनके भतीजे शिशिर ने उन्हे अपनी गाड़ी से कलकत्ता से धनबाद(गोमोह) तक पहुँचाया। वहां से वे पेशावर पहुँचे और वहां से फॉरवार्ड ब्लॉक के सदस्य मियाँ अकबर शाह से मिलें जिन्होंने उनकी मुलाकात, किर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से करा दी। वहां से वे दोनों काबुल की ओर निकल पड़े। इस सफर में भगतराम रहमत खान नाम के पठान और सुभाष उनके चाचा बनें थे। पहाड़ियों में वह पदैल चलकर वहां तक पहुँचे।
वहां वे दो महीनों तक रहे। पहले वह रुसीयों से सम्पर्क करना चाहते थे पर इसमें वह असफल रहे। फिर उन्होंने जर्मन और इटालियन से सम्पर्क साधा। बाद में वे एक इटालियन व्यक्ति आरलैण्डो मैजोन्टा बनकर काबुल से निकलकर रुस की राजधानी मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।
जर्मन प्रवास और हिटलर से मुलाकात- German migration and meeting with Hitler
बर्लिन में सबसे पहले बोस जी रिबेन ट्रॉप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओं से मिलें। वहां पर उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। 29 मई 1942 को बोस जी जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। पर उसे भारत में विशेष रुचि नही थी, उसने उन्हे कोई स्पष्ट वचन नही दिया।
अन्त में बोस जी लगा कि उन्हे जर्मनी और हिटलर से कुछ खास मदद नही मिलने वाली इसलिये 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बन्दरगाह में वे अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्वी एशिया की ओर निकल पड़े। जहां से वे मैडागास्कर होते हुए जापानी पनडुब्बी से इंडोनेशिया के पादांग बन्दरगाह पँहुचे।
चौंकाने वाली अज़मेर घटना का अनावरण-1992: लचीलेपन और मुक्ति की एक मनोरंजक कहानी
आजाद हिन्द फौज का गठन- Formation of Azad Hind Fauj
वहां वे सर्वप्रथम रास बिहारी बोस से मिलें। जहां रास बिहारी बोस ने आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सुभाष को सौप दिया।
जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्त्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहयोग का आशवासन दिया। 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में नेताजी ने अन्तरिंम सरकार की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दिया। वे आजान्द हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बनें।
पूर्वी एशिया मे नेताजी ने भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद देने का आह्रान किया। वहां उनका यह संन्देश था- “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।”
उन्होंने “दिल्ली चलो” का नारा भी दिया। जापान की मदद से उन्होंने भारत पर आक्रमण किया। अंग्रेजों से उन्होंने अण्डमान और निकोबार द्वीप छीन लिया। नेताजी ने इन द्वीपों को “शहीद द्वीप” और “स्वराज द्वीप” का नाम दिया।
बाद मे दोनो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया पर वहां वे नाकाम रहे। क्योकि उस समय तक ब्रिटेन को बाहरी सहायता आने लगी थी। जिससे की मित्र राष्ट्रों की सेनाएं आगें बढ़ रही थी।
आज़ाद हिंद फौज में कई तरीके की रेजिमेंट का गठन किया गया था। जैसे कि- लड़कियों के लिए रानी झाँसी रेजिमेंट, गाधी रेजिमेंट, नेहरु रेजिमेंट। गाधी रेजिमेंट बनाने से यह पता चलता है कि विचारों में विभेद के बाद भी बोस जी ने अपनी फौज मे गाधी रेजिमेंट बनाई क्योकि वे गाधीजी की बहुत इज्जत करते थे।
6 जुलाई 1944 को आजाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से उन्होंने गाधीजी को सम्बोधित किया। बोस जी नें उन्हें जापान से सहायता लेने का कारण बताया और आज़ाद हिन्द फौज के गठन का उद्देश्य भी बताया। अपने इस संबोधन के दौरान नेताजी ने गांधीजी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया। तभी गाधीजी ने भी उन्हे नेताजी की उपाधि दी।
आजादी के दौरान बोस जी का कारावास- Bose’s imprisonment during independence
आजादी के दौरान सुभाषजी को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 16 जुलाई 1921 को छह महीने का कारावास हुआ।
1925 में एक क्रान्तिकारी गोपीनाथ साहा के द्वारा गलती से एक अंग्रेज व्यापारी अर्नेस्ट डे नामक व्यापारी मर गया जो कि वह मारना एक अंग्रेज अफसर चार्लस टेगार्ट को चाहते थे। जिससे की उन्हे फांसी की सजा हो गयी। इस घटना से सुभाष बहुत दुखी हुये। इससे अंग्रेज सरकार ने यह निष्कर्ष निकाला की सुभाष ज्वलन्त क्रान्तिकारियों से सम्बन्ध रखते है। इसलिये उन्हे गिरफ्तार कर अनिश्चितकाल के लिये म्याँमार के माण्डले कारागृह भेज दिया गया।
1930 में सुभाष कारावास में ही थे कि चुनाव में उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। इसलिए अंग्रेजो ने उन्हें रिहा किया। 1932 में उन्हें फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हे अल्मोड़ा जेल मे रखा गया। बाद मे उनकी तबियत खराब होने पर छोड़ा गया। इसके बाद वह यूरोप इलाज के लिए गये।
ऑस्ट्रिया में प्रेम विवाह- love marriage in austria
सन् 1934 सुभाषजी अपना इलाज के लिए ऑस्ट्रिया में थे उस समय उन्हें अपनी पुस्तक लिखने के लिए एक अंग्रेजी टाइपिस्ट की आवश्यकता हुई। उनके मित्र ने एमिली शेंकल से उनकी मुलाकात कराई जो कि एक ऑस्ट्रियन थी। वें एमिली की तरफ आकर्षित हुये और उन्हें उनसे प्रेम हो गया। नाजी जर्मनी के सख्त कानूनों को देखते हुये उन दोनों ने सन् 1942 को बाड गस्टिन नामक स्थान पर हिन्दू पद्दति से विवाह रचा लिया।
वियेना में एमिली ने एक पुत्री का जन्म दिया। बोस जी अपनी पुत्री को आखिरी बार तब देखा जब वह चार सप्ताह की थी। इसका नाम उन्होंने अनिता बोस रखा था। इस समय इनकी बेटी जर्मनी में रहती है।

दुर्घटना और मृत्यु की खबर- accident and death news
लड़ाई में धुरी राष्ट्रो की हार खासकर जापान की हार के बाद नेताजी ने रुस से सहायता माँगने का निश्चय किया। 18 अगस्त 1945 को वे जापान से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस दौरान वे लापाता हो गये। और फिर कभी दिखायी नही दिये।
23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने यह खबर चलायी कि नेताजी का विमान ताइहोकू हवाईअड़्डे के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गया। जहां वे गभ्भीर रुप से घायल हो गये थे। वहां से उन्हें सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहां उन्होंने अन्तिम सांस ली। कर्नल हबीबुर्रहमान ने बताया कि उनका अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया था। उनकी अस्थियाँ इक्ठ्ठा कर टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रखी गयी।
जवाहरलाल नेहरु (प्रथम प्रधानमंत्री के तौर पर अच्छें या बुरें)
मृत्यु पर सन्देंह और कई आयोगों का गठन- Suspicion on death and formation of several commissions-
स्वतन्त्रत के बाद भारत सरकार ने इस घटना की जाँच के लिये 1956 और 1977 मे दो आयोग नियुक्त किये। जिससे यह नतीजा निकला कि नेताजी कि मृत्यु इसी दुर्घटना में हुई थी।
1999 मे मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में नया आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने आयोग को बताया कि 1945 मे उनकी भूमि पर कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नही हुआ। 2005 मे आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को पेश की। पर सरकार ने इसे अस्वीकार कर दिया क्योक इसमें यह बताया गया कि नेताजी की मौत इस दुर्घटना में नही हुई थी।
कलकत्ता हाईकोर्ट ने नेताजी के लापता होने के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की माँग की सुनवाई के लिए स्पेशल बेंच के गठन का आदेश दिया है। इस याचिका को एक सरकारी संगठन इंडियाज स्माइल द्वारा दायर किया गया है।
नेताजी का प्रभाव- Netaji’s influence
भारत की स्वतन्त्रता पर नेताजी का विशेष प्रभाव है। आज़ाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने का प्रयास प्रत्यक्ष रुप से सफल नही हो सका परन्तु इसके परिणाम दूरगामी थे। सन् 1946 का नौसेना विद्रोह इसका उदाहरण है। घर-घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र दिखाई देने लगा।
नेताजी का प्रभाव देश पर अमिट था, जहां स्वतन्त्रता से पूर्व अंग्रेज उनके सामर्थ्य से घबराते रहे वही इसके पश्चात् भी देशी सत्ताधीश भी जनमानस पर उनके व्यक्तित्व व कर्तव्य की अमिट प्रभाव से घबराते रहे। यही एक कारण था वर्षो तक उनके योगदान को दबाया गया। वीर सावरकर ने स्वतन्त्रता के उपरान्त देश मे क्रान्तिकारियों का एक सम्मेलन आयोजित किया था। इसमें अध्यक्ष के आसन पर बोस जी के चित्र को आसीन किया गया था। यह उनको दिया अभूतपूर्व सम्मान था।
नेताजी का लेखन कार्य- Netaji’s writing work
अपने संघर्षपूर्ण जीवन में नेताजी ने कई पुस्तकें भी लिखी है। “द इंडियन स्ट्रगल” उनके द्वारा लिखी एक प्रमुख पुस्तक है। जिसका लंदन से ही प्रथम प्रकाशन हुआ था।
उनकी एक पुस्तक उनकी आत्मकथा “ऐन इंडियन पिलग्रिम” जो कि अपूर्ण ही रही। वे इसे पूर्ण करना चाहते थे जो कि इसके प्रथम पृष्ठ पर बनायी गयी योजना से पता चलता है।
नेताजी के राजनैतिक विचार- Netaji’s writing work
नेताजी चाहते थे कि भारत को स्वतन्त्रता मिलें और अतिशीघ्र मिलें। वो किसी भी प्रकार के डोमिनियन के पक्ष में नही थे। इसके विपरीत सपूर्ण कांग्रेस का मकसद पहले डोमिनियन मांगना था, इसके बाद सम्पूर्ण आजादी। कांग्रेस किसी भी प्रकार से अंग्रेजों को नाराज नही करना चाहती थी।
सुभाषबाबू और गांधीजी के विचार भी भिन्न थे। जहां सुभाषबाबू कहते थे कि स्वतन्त्रता मांगी नही बल्कि छीनी जाती है और इसके खून भी बहाना पड़ता है। ये गाधी जी के अंहिसा के सिद्धात से मेल नही खाता था। यद्यपि दोनो एक-दूसरे का सम्मान करते थे। 1942 में गाधीजी ने सुभाषबाबू को ‘राष्ट्रभक्तों का राष्ट्रभक्त’ कहा था। तो वही बोस जी भी गाधीजी को ‘बापू’ कहकर बुलाते थे। बोस जी भारत को आत्मनिर्भर भी देखना चाहते थे और इसके लिए वह इसके लिए वह औघोगीकरण को एक मुख्य रास्ता मानते थे। वही गाधीजी इसके विरुद्ध थे।
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नेताजी के संदर्भ में अपने विचार- Your thoughts regarding Netaji-
नेताजी भारतीय क्रांति का चमकता सितारा थे जो आज भी जगमग है। उनकी तैयार की गयी आजाद हिन्द फौज के दम पर आगें भारत की आजादी का मार्ग प्रशस्त हो सका। ये सब हम भारतीयों का दुर्भाग्य है कि हमने उन्हे वो अहमियत नही दी जिसकें वो हकदार थे।
वो चाहते थे तो आईसीएस बनकर एक अच्छा और आलीशान जीवन गुजार सकतें थे। पर उन्होंने संघर्ष को चुना, भारत की स्वतन्त्रता को चुना। वे कभी भी अपनी बातों से पीछे नही हटतें थे। भारत की आजादी के लिए उन्होंने कई यात्रायें की, कई देशों के नेताओं से मिलें। वे चाहते तो वे भी कांग्रेस में बने रहते पर उन्होंने अपने विचारों से कभी समझौता नही किया।
उनसे एक बात जो सीखनें वाली है कि उनका वैचारिक विभेद भले किसी से भी हो सामजिक विभेद कभी नही है। वो गाधीजी के अंहिसा के तरीके से असहमत थें पर उनका पूरा सम्मान करतें थे।

स्वतन्त्रता में उनके योगदान को इस तरीके से भी आंका जा सकता है। कि जब उस वक्त का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री क्लमेंट एंटली भारत आया तो उसने साफ कहा कि भारत की आजादी में सबसे बड़ा हाथ आजाद हिन्द फौज का था। जिसकें बाद भारत में सैनिक विद्रोह इतना बढ़ गया कि ब्रिटिश को भारत छोड़ना ही पड़ा। क्योकि वह कुछ अंग्रेजों के सहारें भारत पर शासन नही कर सकते थे। बोस जी ने जिस तरीकें से भारतीय सैनिकों की वफादारी को देश हित में और ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ प्रेरित किया था। वह एक मास्टर स्ट्रोक था।
बोस जी मृत्यु आज भी एक रहस्य है। उनका परिवार भी 1945 मे उनकी मृत्यु को नहीं मानता। उनके अनुसार उसके बाद वह रुस मे नज़रबन्द थे। वही सरकार भी उनकी मौत से जुड़े सरकारी दस्तावेंज छुपायें हुयें है।
अब शायद हम उनकों वह सम्मान देने लगे जिसके वह हकदार थें। 23 जनवरी 2021 को उनकी 125 जयंती के मौके पर उनके जन्मदिवस को पराक्रम दिवस के रुप में मनाया जाता है। 8 सितम्बर 2022 को नई दिल्ली में राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्यपथ किया गया है। जहां नेताजी की विशाल प्रतिमा का अनावरण किया गया।
भावी पीढ़ी को उनके बारे में बताना हमारा काम है। देश को आजादी सिर्फ अंहिसा से नही मिली न ही अंग्रेज इतने शरीफ थे कि वह अंहिसा से चले जाये। उसमें बहुत बड़ा योगदान नेताजी और उनकी आज़ाद हिन्द फौज का भी था। जिसने कई बलिदान दियें वह उस समय देश के सैनिकों में यह जज्बा भरा कि वह अपने देश के लिए लड़े न कि किसी गोरी सरकार के लिए। इसी के चलते भारत आजाद हो सका।
धन्यवाद…
बोस को ‘द गॉड फादर ऑफ भारत’ क्यों कहा जाता है?
बोस को ‘द गॉड फादर ऑफ भारत’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया और भारतीय जनता को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया।
कौन थे सुभाष चंद्र बोस?
सुभाष चंद्र बोस भारत के एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्हें “भारत का गॉडफादर” भी कहा जाता है।
बोस ने स्वतंत्रता के लिए क्या किया?
बोस ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सक्रिय रूप से भाग लिया और भारत को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र कराने के लिए कई आंदोलन चलाए। उन्होंने आज़ाद हिन्द फौज का भी गठन किया, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।