“आजादी के सच्चे सिपाही: बटुकेश्वर दत्त का जीवन और योगदान”

“भारत के स्वतंत्रता संग्राम की गाथा अनेक वीर योद्धाओं की कहानियों से भरी पड़ी है। इन्हीं में से एक नाम है बटुकेश्वर दत्त, जो अपने अद्वितीय साहस और बलिदान के लिए सदैव याद किए जाएंगे। बटुकेश्वर दत्त आजादी के वे सच्चे सिपाही थे, जो अमर शहीद भगत सिंह के साथ अंत तक कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे। असेंबली बम कांड में उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।

हालांकि, उनका नाम भगत सिंह की तरह उतना चर्चित नहीं है, लेकिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान अमूल्य और प्रेरणादायक था। वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के एक सक्रिय सदस्य थे और संगठन की योजनाओं में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी।

असेंबली बम कांड के बाद, उन्हें सजा काटने के लिए काला पानी की जेल भेज दिया गया। वहां उन्होंने अमानवीय परिस्थितियों में भी अपने हौसले को कभी कमजोर नहीं होने दिया। जिस देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने इतनी बड़ी यातनाएं सही, उसी देश में आजादी के बाद उनके अंतिम दिनों में वे आर्थिक तंगी से जूझते रहे। उनके पास अपने इलाज के लिए भी पैसे नहीं थे।

यह विडंबना ही है कि आजादी के नायकों को अपने जीवन के अंतिम समय में इस तरह संघर्ष करना पड़ा। बटुकेश्वर दत्त का जीवन हमें न केवल उनके बलिदान, बल्कि एक स्वतंत्र और सशक्त भारत की उनकी कल्पना को भी याद दिलाता है।”

इस लेख में हम बटुकेश्वर दत्त के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर उनकी ही जुबानी प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे। तो बने रहें इस ब्लॉग के साथ अंत तक।

बटुकेश्वर दत्त का जीवन परिचय उन्हीं की जुबानी-

मेरा नाम बटुकेश्वर दत्त है। मैं उन हजारों क्रांतिकारियों में से एक हूं जिन्होंने अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। मेरा जन्म 18 नवंबर 1910 को जिला बर्धमान, बंगाल में हुआ। मेरे पिता का नाम गोष्ठ बिहारी दत्त और माता का नाम कमला देवी था। साधारण परिवार में जन्म लेने के बावजूद मेरे माता-पिता ने मुझे हमेशा सच्चाई और न्याय के रास्ते पर चलने की प्रेरणा दी।

  1.  बचपन और शिक्षा-

मेरा बचपन साधारण लेकिन प्रेरणादायक रहा। शुरुआती शिक्षा मैंने बर्धमान में प्राप्त की, लेकिन बाद में मेरा परिवार कानपुर आ गया। यहां मेरी पढ़ाई जारी रही। बचपन में, मैं अन्य बच्चों की तरह ही सरल जीवन जी रहा था, लेकिन ब्रिटिश शासन के तहत अपने देशवासियों की पीड़ा देखकर मेरा मन बार-बार विचलित हो जाता था।

कानपुर में मैंने पी.पी.एन. हाई स्कूल और फिर क्राइस्ट चर्च कॉलेज में पढ़ाई की। शिक्षा के दौरान मैंने स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी गतिविधियों के बारे में पढ़ा। मेरे मन में यह सवाल हमेशा उठता था: क्या हम गुलामी की इस जंजीर से कभी मुक्त हो पाएंगे?

  •  गुलामी का पहला एहसास और क्रांति का मार्ग-

गुलामी का एहसास मुझे पहली बार तब हुआ जब मैंने अपने ही देश में अपने लोगों को ब्रिटिशों के अधीन बुरी परिस्थितियों में जीते देखा। किसानों से उनकी जमीनें छीन ली जाती थीं, व्यापारियों को मनमाने कर देने पड़ते थे, और सामान्य नागरिकों के पास कोई अधिकार नहीं थे। अंग्रेजों की हुकूमत ने हमारे देशवासियों के जीवन को कठिन बना दिया था। हमे आजादी के लिए स्वामी विवेकानंद की कविता ‘बागी’ ने प्रेरित किया था। बाद में हम रामकृष्ण मिशन से भी जुड़ गये।

इन्हीं घटनाओं ने मेरे भीतर आजादी की आग प्रज्वलित की। मैं सोचने लगा कि इस अन्याय को समाप्त करने के लिए मुझे क्या करना चाहिए।

बटुकेश्वर दत्त "True soldier of freedom: Life and contribution of Batukeshwar Dutt"
बटुकेश्वर दत्त “True soldier of freedom: Life and contribution of Batukeshwar Dutt”

भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों से मुलाकात-

मेरी जिंदगी तब बदल गई जब मेरी मुलाकात भगत सिंह से हुई। वह केवल एक इंसान नहीं, बल्कि एक विचार थे—आजादी के लिए समर्पित, समानता और न्याय के लिए लड़ने वाले। उनके साथ सुखदेव, राजगुरु, और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी भी थे। भगत सिंह के विचारों और उनकी अदम्य साहस ने मुझे गहराई से प्रभावित किया।

हमने मिलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) को मजबूत किया। यह संगठन केवल हथियार उठाने का नहीं, बल्कि सामाजिक समानता और आर्थिक न्याय की विचारधारा को फैलाने का माध्यम था।

“गौतम अडानी की कहानी: साधारण व्यक्ति से उघोगपति तक का सफर”

असेंबली बम कांड: एक ऐतिहासिक कदम-

हमारा सबसे बड़ा और ऐतिहासिक कदम 8 अप्रैल 1929 को उठाया गया, जब मैंने और भगत सिंह ने दिल्ली सेंट्रल असेंबली में बम फेंका। यह बम किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य को चेतावनी देने के लिए था कि अब भारतीय चुप नहीं बैठेंगे। बम फेंकने के बाद हमने नारा लगाया: “इंकलाब जिंदाबाद!”

बम फोड़ने का उद्देश्य बिना किसी को नुकसान पहुंचाये बहरी अंग्रेज सरकार तक अपनी बात पहुंचाना था। यह वह दिन था जब अंग्रेज सरकार भारतीय सेनानियों की आवाज को दबाने के लिए सदन में दो बिल पास करवाने वाली थी- पहला- पब्लिक सेफ्टी बिल और दूसरा- ट्रेड डिस्प्यूट बिल। जिसके माध्यम से वह आजादी की आवाज को दबा सकें व निर्दोष भारतीयों को ओर प्रताड़ित कर सकें। पर हमारे इस प्रयास से यह बिल पारित नहीं हो सकें।

हमने जानबूझकर खुद को गिरफ्तार कराया ताकि हम अदालत में अपने विचार और उद्देश्य को जनता के सामने रख सकें। हमने अदालत में “इंकलाब जिंदाबाद” और “साम्राज्यवाद का नाश हो” के नारे लगाए। हमारी इस कार्रवाई ने पूरे देश में हलचल मचा दी।

हमने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया ताकि अदालत में भी अपनी विचारधारा को प्रस्तुत कर सकें। हमें 12 जून, 1929 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और हमें लाहौर फोर्ट जेल भेज दिया गया।

भगत सिंह के साथ जेल जीवन-

गिरफ्तार होने के पश्चात भगत सिंह व मुझ पर लाहौर षडयंत्र केस चलाया गया। मगर भगत सिंह को उनके पुराने केस के लिए सुखदेव व राजगुरु के साथ फांसी की सजा दे दी गई। व मुझे आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी भेज दिया गया।

गिरफ्तारी के बाद हमें कई यातनाओं का सामना करना पड़ा। लेकिन सबसे कठिन समय तब आया जब मैंने भगत सिंह, सुखदेव, और राजगुरु को फांसी के फंदे पर जाते देखा। उनकी शहादत ने मुझे अंदर से तोड़ दिया, लेकिन साथ ही यह संकल्प भी दिया कि उनकी कुर्बानी व्यर्थ नहीं जाने दूंगा।

काला पानी और सेलुलर जेल का संघर्ष-

मुझे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और काला पानी की कुख्यात सेलुलर जेल, अंडमान भेज दिया गया। यह जेल असल में एक यातना गृह था। यहां कैदियों को इंसानों जैसा व्यवहार नहीं मिलता था। हमें दिन-रात कठोर श्रम करना पड़ता था। भोजन और चिकित्सा सुविधाएं नाममात्र की थीं। हमारी जिंदगी को इकदम नर्क बना दिया गया था।

मैंने अपने जेल के दिनों में कई बार भूख हड़ताल की, अन्य कैदियों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया। सेलुलर जेल में रहकर मैंने यह सीखा कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक आजादी नहीं है, बल्कि यह आत्मा और विचारों की आजादी भी है।

आजादी के बाद का संघर्ष-

1947 में जब देश आजाद हुआ, मैं जेल से रिहा हो चुका था। लेकिन मेरा संघर्ष यहीं खत्म नहीं हुआ। आजादी के बाद मुझे और मेरे जैसे अन्य क्रांतिकारियों को वह सम्मान नहीं मिला, जिसके हम हकदार थे।

स्वतंत्रता के बाद मेरा विवाह अंजलि दत्त के साथ हो गया। बाद में हम पटना में रहने लगे। हमारी एक पुत्री भी हुई जिसका नाम हमने ‘भारती’ रखा।

क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक की अद्भुत कहानी

अपने अन्तिम दिनों में बटुकेश्वर दत्त-

हमारी अन्तिम दिनों में जिंदगी बहुत कष्टकारी थीं। मैं पटना में रहने लगा था, लेकिन मेरी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। मेरे पास इलाज कराने के लिए भी पैसे नहीं थे। सरकार ने हमारी ओर कोई ध्यान नहीं दिया ओर न ही लोगों ने।

बटुकेश्वर दत्त "True soldier of freedom: Life and contribution of Batukeshwar Dutt"
बटुकेश्वर दत्त “True soldier of freedom: Life and contribution of Batukeshwar Dutt”

जब मैं अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में था, तब मुझसे मिलने अमर शहीद भगत सिंह जी की माता जी विद्यावती देवी मिलने आयीं। उन्होंने मुझसे कहा कि, एक बेटे को मैनें पहले खो दिया व दूसरे को तब देखने आई हो जब वह अपने अन्तिम पड़ाव में हैं। उनसे मैनें अपनी अन्तिम इच्छा व्यक्त की, मैने उनसे कहा कि मेरा अन्तिम संस्कार उसी गांव में करना जहां उनके साथियों का किया गया था।

20 जुलाई 1965 को मैंने पटना के सरकारी अस्पताल में अपनी अंतिम सांस ली। मैं यह सोचकर संतुष्ट था कि मैंने अपने हिस्से का कर्तव्य पूरा किया। लेकिन यह भी दुख था कि जिस देश के लिए मैंने सब कुछ न्योछावर किया, उसने मुझे मेरे अंतिम समय में भुला दिया।

देश के लिए संदेश और मेरी अंतिम इच्छा-

मेरा जीवन संघर्षों और बलिदानों से भरा था, लेकिन मुझे गर्व है कि मैंने अपनी मातृभूमि के लिए अपना कर्तव्य निभाया। मेरी अंतिम इच्छा यही है कि देशवासी हमारी कुर्बानियों को याद रखें और स्वतंत्रता की रक्षा करें। यह स्वतंत्रता हमें यूं ही नहीं मिली; इसके लिए हमने अपना खून और पसीना बहाया है।

देश का हर नागरिक स्वतंत्रता और समानता के आदर्शों को जिंदा रखे, यही मेरी अंतिम प्रार्थना है। जय हिंद!

बटुकेश्वर दत्त की कहानी यह बताती हैं, कि किस प्रकार से क्रान्तिकारियों ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक सिर्फ देश के लिए सघर्ष ही किया था। और उसके बदले में उन्हें व अन्य क्रान्तिकारियों को मिला क्या सिर्फ एक डाक टिकट व कुछ अन्य तमगें। अपने अन्तिम दिनों में उन जैंसे कई गुमनाम क्रान्तिकारियों को बेबसी का जीवन बिताना पड़ा। जिन्होंने देश के लिए इतने कष्ट सहे व जिसे आजादी दिलाने के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर दिया।

सारी क्रेडिट तो वो खा गये जिन्होंने जिंदगीभर आराम फरमाया। आजादी के पहले भी मलाई खाई व उसके बाद भी मलाई खा रहे हैं। और जनता सिर्फ 15 अगस्त को जागती है, व 16 अगस्त को भूल जाती हैं।

आप के इस ब्लांग के बारे में क्या विचार हैं। हमें कमेंट के माध्यम से जरुर बताएं। धन्यवाद…

Q1: बटुकेश्वर दत्त का जन्म कब और कहां हुआ था?

A1: बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवंबर 1910 को जिला बर्धमान, बंगाल में हुआ था।

Q2: असेंबली बम कांड का मुख्य उद्देश्य क्या था?

A2: असेंबली बम कांड का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य को यह संदेश देना था कि भारतीय अब अन्याय के खिलाफ चुप नहीं रहेंगे। बम किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं, बल्कि अंग्रेजों को चेतावनी देने के लिए फेंका गया था।

Q3: बटुकेश्वर दत्त को कौन-सी सजा सुनाई गई थी?

A3: बटुकेश्वर दत्त को असेंबली बम कांड के बाद आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और उन्हें काला पानी की जेल भेजा गया।

Q4: बटुकेश्वर दत्त के अंतिम दिनों में उनकी आर्थिक स्थिति कैसी थी?

A4: बटुकेश्वर दत्त के अंतिम दिनों में उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। उनके पास इलाज कराने के लिए भी पैसे नहीं थे, और उन्हें सरकार से कोई सहायता नहीं मिली।

Q5: बटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा क्या थी?

A5: बटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार उसी स्थान पर किया जाए, जहां उनके साथी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का किया गया था।

Leave a Comment